ई पोस्ट अपना भासा में लिख रहे हैं काहे कि मिडिल क्लास का हिस्सा होने के साथे साथ ई भासा भी हमरा दिल से जुड़ा हुआ है...
हम सुरुवे से काफी खुलल हाथ वाले रहे हैं, मतलब पईसा हमरे हाथ में ठहरता ही नहीं है एकदम.... जब हम छोटा थे तो माँ-पापाजी के मुंह से हमेसा सुनते थे कि हम लोग मिडिल क्लास के हैं, हमलोग को एक-एक पईसा का हेसाब रखना चाहिए.... ऊ समय हम केतना बार पूछे कि ऐसा करना काहे इतना ज़रूरी है तब पापाजी कहते थे कि टाईम आने पर अपने आप बुझ(समझ) जाओगे... ओसे तो ज़िन्दगी में केतना बार ई एहसास हुआ कि पईसा केतना इम्पोर्टेन्ट होता है लाईफ के लिए, उसके बिना तो कोनो गुज़ारा ही नहीं है... लेकिन तयियो कभी भी पईसा बचाने का नहीं सोचे... सोचे जब ज़रुरत होगा तब देखल जाएगा...
पापा हमेसा से अपना कहानी हमको सुनाते थे, उनके बाबूजी यानी के हमरे दादाजी किसान थे, फिर कईसे उनके माँ-बाबूजी उसी समय गुज़र गए जब ऊ ढंग से स्कूल जाना सुरु भी नहीं किये थे, उनकी दादीजी थीं केवल.. ऊ भी कुछे साल तक रहीं... पापा को पढने का बहुते शौक था, लेकिन घर में अब कोनो(कोई) कमाने वाला नय था जो ऊ पढ़ पाते... सुरु सुरु में तो बचत पर काम चला लेकिन एगो किसान का बचत पूँजी केतना होता है ऊ तो आप लोगों से नहिएँ न छिप्पल है... जल्दिये पईसा कम पड़ने लगा, तब ऊ बगले में एगो चाची के हियाँ बीड़ी बाँधने लगे, 2oo बीड़ी बाँधने का ऊ समय १ रुपया मिलता था, इसी तरह करते करते ऊ मैट्रिक तो कर लिए लेकिन उनके गावं में इंटर कॉलेज नय होने के कारण उनको गावं छोड़ना पड़ा, लेकिन पढाई ज़ारी रखने के लिए पईसा तो चाहिए ही था सो धीरे धीरे गावं की ज़मीन बिकने लगी, और पढाई चलती रही.... वहां से पापा ग्रैजुएशन भी कर लिए लेकिन तब तक लम्पसम पूरी ज़मीन बिक गयी थी, बाकी रहल-सहल कसर गंगा मैया ने पूरी कर दी, न जाने केतना ज़मीन गंगा मैया में समा गया....खैर ऊ कहते हैं न, मेहनत कहियो बेकार नय होता है... पापा का नौकरी लगिए गया, फिर सादी भी हो गया... और किस्मत देखिये, सादी के कुछ दिन बाद माँ का भी नौकरी लग गया... दुन्नु कोई सरकारी इस्कूल में शिक्षक... लेकिन अभियो ऊ मिडिल क्लास वाला दिन नय टला था, रहने के लिए कोनो घर नहीं था... तो जोन इस्कूल में माँ पढ़ाती थीं उहे स्कूल के एगो क्लास रूम में दोनों रहते थे, रात में क्लास का बेंच सब को जोड़ के चौकी(बिस्तर) बन जाता था, उहे पर बिछौना लगा देते थे, फिर भोरे भोरे सब फिर से अलग करके क्लास रूम तैयार... इसी तरह ज़िन्दगी चलते रही फिर हमरे दोनों भैया का पढाई... पापाजी उनके पढाई में कोनो कमी नय रखना चाहते थे, दोनों भैया को बचपने में होस्टल भेज दिए... फिर थोडा बहुत पईसा बचाके वहीँ पासे में एक ठो झोपडी बनाये, कहने को हमारा ठिकाना... हमारा घर... लेकिन ऊ तो सरकारी ज़मीन पर था, टेमप्रोरी... अपना ज़मीन खरीदकर उस पर एक कमरे का अपना घर बनाने में दोनों को 20 साल लग गए.. तब जाके 1989 में हम लोग के पास अपना एगो घर हुआ, एक कमरे का घर... हम उस समय ४ साल के थे, जादे नहीं लेकिन तनि-मनी हमको भी याद है... माँ-पापाजी दोनों केतना खुश थे.... फिर हम तीनो भाई बड़े हुए, तीनो इंजिनियर बने... ऊ भी बिना बैंक से एक्को पईसा क़र्ज़(जिसको आज कल मॉडर्न लोग लोन कहते हैं) लिए... पापा कहते हैं एक एक पईसा जोड़ के, संभाल के, बचा के रखे तब्बे आज इतना कुछ अपना दम पर बना पाए...
खैर, ई तो बात थी पापा की, लेकिन जब कुछ दिन पहले हमरा नौकरी लगा तो हमरे दिमाग में बचत जईसा कुछो नहीं था, लेकिन पहिला महिना का सैलरी आदमी का ज़िन्दगी में केतना बदलाव ला सकता है ऊ हम तब्बे जाने, नौकरी से पहिले हम सोचे थे कि पईसा मिलेगा तो ई करेंगे, ऊ करेंगे... लेकिन जब पईसा एकाउंट में था तो सोचे ऐसे करेंगे तो दसे दिन में पैसा ओरा(ख़त्म हो) जाएगा... फिर किससे मांगेंगे, अब तो अपना पूरा खर्चा हमको खुद को देखना है, अपना रहने का, खाने का... फिर कहीं आना जाना हुआ तो टिकट का.. बिमारी-उमारी तो आजकल आदमी को लगले रहता है... अब उसके लिए हम किसी से मांगने थोड़े न जायेंगे... फिर अभी तो आगे पूरा ज़िन्दगी पड़ा हुआ है, जब परिवार बड़ा होगा, घर का ज़िम्मेदारी बढेगा... उसके लिए भी तो आज से ही बचत करना पड़ेगा... तब जाकर ई बात का एहसास हुआ कि ये मिडिल क्लास आदमी क्या होता है...
मिडिल क्लास आदमी वो है जो मॉल में जाता है, वहां कोनो सामान देखता है तो बाकी कुच्छो देखने से पहले प्राईस टैग देखता है, पसंद-नापसंद तो बाद का बात है... जब भी ऑटो में बैठता है तो सोचता है, काश कि बस मिल जाए तो कुछ पैसे बच जाएँ, सामने से एसी बस गुज़रती है तो सोचता है अगर जेनरल बस में भी सीट मिल जाए तो उसी से चल चलेंगे... मिडिल क्लास आदमी एक-आध किलोमीटर तो ऐसे ही पैदल चल लेता है यही सोच कर कि चलो 15-20 रूपये रिक्शे के बचा लिए... ऐसे कितने ही 10-20 रुपये जोड़-जोड़कर एक मिडिल क्लास आदमी बनता है... एक मिडिल क्लास आदमी का कोनो बैकअप नहीं होता है कि महीना के अंत में अगर पैसा ख़तम हो गया तो फलाना से 1500 रुपया ले लेंगे, या फिर कोनो इमरजेंसी पड़ गया तो क्रेडिट कार्ड यूज कर लेंगे.. मिडिल क्लास आदमी अपना बचत के भरोसे जीता है, कोनो बैकअप के भरोसे नहीं... उसका बचत ही उसका पूँजी है, फ़ालतू में जाता हुआ एक भी रुपया उसको कई-कई बार सोचने पर मजबूर करता है...
नौकरी लगने के बाद हमको एहसास हुआ कि हम भी मिडिल क्लास आदमी हैं... ओसे मिडिल क्लास होना एक सोच है, जिसको हम बचपन से जीते आते हैं, अब अगर हम महीना में लाखो रूपया कमाने लगे न, तहियो हम मिडिल क्लास ही रहेंगे काहे कि इंसान सब कुछ बदल सकता है लेकिन अपना सोच नहीं बदल सकता...
पापा हमेसा से अपना कहानी हमको सुनाते थे, उनके बाबूजी यानी के हमरे दादाजी किसान थे, फिर कईसे उनके माँ-बाबूजी उसी समय गुज़र गए जब ऊ ढंग से स्कूल जाना सुरु भी नहीं किये थे, उनकी दादीजी थीं केवल.. ऊ भी कुछे साल तक रहीं... पापा को पढने का बहुते शौक था, लेकिन घर में अब कोनो(कोई) कमाने वाला नय था जो ऊ पढ़ पाते... सुरु सुरु में तो बचत पर काम चला लेकिन एगो किसान का बचत पूँजी केतना होता है ऊ तो आप लोगों से नहिएँ न छिप्पल है... जल्दिये पईसा कम पड़ने लगा, तब ऊ बगले में एगो चाची के हियाँ बीड़ी बाँधने लगे, 2oo बीड़ी बाँधने का ऊ समय १ रुपया मिलता था, इसी तरह करते करते ऊ मैट्रिक तो कर लिए लेकिन उनके गावं में इंटर कॉलेज नय होने के कारण उनको गावं छोड़ना पड़ा, लेकिन पढाई ज़ारी रखने के लिए पईसा तो चाहिए ही था सो धीरे धीरे गावं की ज़मीन बिकने लगी, और पढाई चलती रही.... वहां से पापा ग्रैजुएशन भी कर लिए लेकिन तब तक लम्पसम पूरी ज़मीन बिक गयी थी, बाकी रहल-सहल कसर गंगा मैया ने पूरी कर दी, न जाने केतना ज़मीन गंगा मैया में समा गया....खैर ऊ कहते हैं न, मेहनत कहियो बेकार नय होता है... पापा का नौकरी लगिए गया, फिर सादी भी हो गया... और किस्मत देखिये, सादी के कुछ दिन बाद माँ का भी नौकरी लग गया... दुन्नु कोई सरकारी इस्कूल में शिक्षक... लेकिन अभियो ऊ मिडिल क्लास वाला दिन नय टला था, रहने के लिए कोनो घर नहीं था... तो जोन इस्कूल में माँ पढ़ाती थीं उहे स्कूल के एगो क्लास रूम में दोनों रहते थे, रात में क्लास का बेंच सब को जोड़ के चौकी(बिस्तर) बन जाता था, उहे पर बिछौना लगा देते थे, फिर भोरे भोरे सब फिर से अलग करके क्लास रूम तैयार... इसी तरह ज़िन्दगी चलते रही फिर हमरे दोनों भैया का पढाई... पापाजी उनके पढाई में कोनो कमी नय रखना चाहते थे, दोनों भैया को बचपने में होस्टल भेज दिए... फिर थोडा बहुत पईसा बचाके वहीँ पासे में एक ठो झोपडी बनाये, कहने को हमारा ठिकाना... हमारा घर... लेकिन ऊ तो सरकारी ज़मीन पर था, टेमप्रोरी... अपना ज़मीन खरीदकर उस पर एक कमरे का अपना घर बनाने में दोनों को 20 साल लग गए.. तब जाके 1989 में हम लोग के पास अपना एगो घर हुआ, एक कमरे का घर... हम उस समय ४ साल के थे, जादे नहीं लेकिन तनि-मनी हमको भी याद है... माँ-पापाजी दोनों केतना खुश थे.... फिर हम तीनो भाई बड़े हुए, तीनो इंजिनियर बने... ऊ भी बिना बैंक से एक्को पईसा क़र्ज़(जिसको आज कल मॉडर्न लोग लोन कहते हैं) लिए... पापा कहते हैं एक एक पईसा जोड़ के, संभाल के, बचा के रखे तब्बे आज इतना कुछ अपना दम पर बना पाए...
खैर, ई तो बात थी पापा की, लेकिन जब कुछ दिन पहले हमरा नौकरी लगा तो हमरे दिमाग में बचत जईसा कुछो नहीं था, लेकिन पहिला महिना का सैलरी आदमी का ज़िन्दगी में केतना बदलाव ला सकता है ऊ हम तब्बे जाने, नौकरी से पहिले हम सोचे थे कि पईसा मिलेगा तो ई करेंगे, ऊ करेंगे... लेकिन जब पईसा एकाउंट में था तो सोचे ऐसे करेंगे तो दसे दिन में पैसा ओरा(ख़त्म हो) जाएगा... फिर किससे मांगेंगे, अब तो अपना पूरा खर्चा हमको खुद को देखना है, अपना रहने का, खाने का... फिर कहीं आना जाना हुआ तो टिकट का.. बिमारी-उमारी तो आजकल आदमी को लगले रहता है... अब उसके लिए हम किसी से मांगने थोड़े न जायेंगे... फिर अभी तो आगे पूरा ज़िन्दगी पड़ा हुआ है, जब परिवार बड़ा होगा, घर का ज़िम्मेदारी बढेगा... उसके लिए भी तो आज से ही बचत करना पड़ेगा... तब जाकर ई बात का एहसास हुआ कि ये मिडिल क्लास आदमी क्या होता है...
मिडिल क्लास आदमी वो है जो मॉल में जाता है, वहां कोनो सामान देखता है तो बाकी कुच्छो देखने से पहले प्राईस टैग देखता है, पसंद-नापसंद तो बाद का बात है... जब भी ऑटो में बैठता है तो सोचता है, काश कि बस मिल जाए तो कुछ पैसे बच जाएँ, सामने से एसी बस गुज़रती है तो सोचता है अगर जेनरल बस में भी सीट मिल जाए तो उसी से चल चलेंगे... मिडिल क्लास आदमी एक-आध किलोमीटर तो ऐसे ही पैदल चल लेता है यही सोच कर कि चलो 15-20 रूपये रिक्शे के बचा लिए... ऐसे कितने ही 10-20 रुपये जोड़-जोड़कर एक मिडिल क्लास आदमी बनता है... एक मिडिल क्लास आदमी का कोनो बैकअप नहीं होता है कि महीना के अंत में अगर पैसा ख़तम हो गया तो फलाना से 1500 रुपया ले लेंगे, या फिर कोनो इमरजेंसी पड़ गया तो क्रेडिट कार्ड यूज कर लेंगे.. मिडिल क्लास आदमी अपना बचत के भरोसे जीता है, कोनो बैकअप के भरोसे नहीं... उसका बचत ही उसका पूँजी है, फ़ालतू में जाता हुआ एक भी रुपया उसको कई-कई बार सोचने पर मजबूर करता है...
नौकरी लगने के बाद हमको एहसास हुआ कि हम भी मिडिल क्लास आदमी हैं... ओसे मिडिल क्लास होना एक सोच है, जिसको हम बचपन से जीते आते हैं, अब अगर हम महीना में लाखो रूपया कमाने लगे न, तहियो हम मिडिल क्लास ही रहेंगे काहे कि इंसान सब कुछ बदल सकता है लेकिन अपना सोच नहीं बदल सकता...
बड़ी सच बात लिख दी , शेखर | बिलकुल ऐसे ही होता है भाई |
ReplyDeleteमिडिल क्लास आदमी के जीवन की हकीकत निचोड़ कर रख दी ... मिडिल क्लास की एक एक रूपिया बचाने की जद्दोजहद और समय के साथ रफ्तार बनाए रखने की अभिलाषा उसे रबरबैंड की तरह खींचती रहती है ... बस वो लाइन यहाँ सटीक लगती है कि ...
ReplyDeleteदुनिया मे जो आए हैं तो जीना ही पड़ेगा
जीवन अगर जहर है तो पीना ही पड़ेगा...
haan.. bilkul sahi, ye zahar to peena hi padega...
Deleteएकदम सच्ची बात लिखी आपने ,अर्थ कई बार सोच को ऐसे ही सीमित कर देता है :)
ReplyDelete... उसका बचत ही उसका पूँजी है, फ़ालतू में जाता हुआ एक भी रुपया उसको कई-कई बार सोचने पर मजबूर करता है...आईन में अपनी ऐसी मौंजू तस्वीर जो रूह कंपा डाले...क्या लिखा है..
ReplyDeleteये जिसको हम मिडिल क्लास बोल रहे हैं उसको बिच का वर्ग भी बोल सकते........ कहीं भी और किसी भी स्तिथि में ये वर्ग अपनी जिंदगी,खुद को साबित करने में / अपनी पहचान स्थापित करने के जदोजहद में ख़त्म कर देता है........... और हासिल कुछ भी नहीं करता ...
ReplyDeleteआपने शायद मेरी पूरी पोस्ट नहीं पढ़ी, अगर पढ़ी होती तो आप समझ पाते कि इस पोस्ट का मतलब क्या है... बचत एक ऐसा शब्द है जिसके इर्द-गिर्द ये पोस्ट घूमती है.. इस पोस्ट को पढ़ के क्या आप बता सकते हैं मेरे पिताजी ने क्या हासिल नहीं किया...
Deleteसोच मानसपटल पर अच्छे से अंकित हो जाती है सो, बदलना बहुत कठिन है इसे
ReplyDeleteमिडिल क्लास बस मेडेले करता रहता है..
ReplyDeleteShadi hone k baad humein bhi eksaas hua k savaari auto hi pakdenge chahe se zara bahut paidal chal lein.. magar iska bhi apna maza h.. baa me ghar aa k kaisa to Achievement lagta h k aaj itte rupaye bachaye :)
ReplyDeleteएक एक बात सोलह आने सच.
ReplyDeleteसही बात है ...बचत ही सब कुछ है ... माध्यम वर्ग का आदमी आपने आप को नही बदल सकता .. भाई जी कुछ ऐसी ही कहनी मेरी भी है.
ReplyDeleteगज़ब लिखे हो शेखर बाबू! दिल जीत लिये हमरा। काहे कि हमहूँ मिडिले क्लॉस वाला आदमी हैं न। धन के मामला मा सोच भले मिडिल क्लास हो लेकिन लेखनी त ई हाई क्लास है तुम्हारा।
ReplyDeleteबहुत खूब शेखर जी,जागरण जक्सन पर आप बेस्ट ब्लोगर भी हैं इसी लेख के लिए बधाई |
ReplyDeletehttp://drakyadav.blogspot.in/
Yaara tere se jitne pange karuin but i really enjoy your words.... keep it up buddy.....
ReplyDeleteso i can consider myself as a good writer !!!! :) Thankz ...
Deleteसच्ची और सही बात
ReplyDeleteMiddle class ki vyatha middle class waale hi jaan samajh sakte hai.. Sahi kaha gaya hai ki a peeny spent is a penny earned.
ReplyDeleteमिडिल-क्लास आदमी
ReplyDeleteइधर वो बदमाशी करते हैं
उधर वो बेइमानी करते हैं
दोनों की सज़ा मिलती है- मुझे.
- - अंजनी पांडेय
One of ny favorite posts on ur blog. Btw papa middle class naa the magar middli classiyat to hum me b koot koot k bhari h. Sply wi price tag dekhna aur paise baxhabe ko paidal chalna...i can relate sooo much wid it :)
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