आज
की शाम पिछले एक साल की हर शामों से थोड़ी अलग है, पिछले गुज़रे एक साल की
पोठली बना कर जो तुम मेरे पास छोड़ गयी हो.. उस पोठली में कितना कुछ है, वो
दिसंबर की सर्दी, जनवरी की घास पर पड़ी ओस की वो बूँदें, फ़रवरी की वो हलकी
सी धूप, मार्च के पेड़ों
से गिरते पत्ते, अप्रैल की चादर में लिपटा वो तुम्हारा इकरार, मई की शाखों
पर लगे वो ढेर सारे गुलमोहर के फूल... और भी न जाने कितना कुछ...
जैसे-जैसे इस पोठली के एक एक खजाने के साथ इस शाम का हर एक अकेला लम्हा
गुज़ार रहा हूँ,
उतना ही ज्यादा और ज्यादा खुद को तुम्हारे करीब पाता हूँ... पूरा शहर अपने
आप में मगन है, वही गाड़ियों की आवाजें, कुछ बच्चे बगल वाली छत पर खेल रहे
हैं, बीच बीच में कोई फेरीवाला भी आवाज़ लगा जाता है.. लेकिन इस सबसे अलग
मैं इस शहर से
कुरेद कुरेद कर तुम्हारी हर एक झलक को अपनी पलकों के इर्द-गिर्द समेटने की
जुगत में लगा हूँ... इस शहर की हवाओं में बहुत कुछ बह रहा है, इन हवाओं में
घुले तुम्हारे एहसास को अपनी साँसों में भर के एक ठंडक सी महसूस कर रहा
हूँ... कई सारे लफ्ज़ हैं जो इन कागज़ के पन्नों पर उतरने के लिए धक्का-मुक्की
मचाये हुए हैं, उन सभी लफ़्ज़ों को करीने से सजा कर एक ग़ज़ल लिखना बहुत
मुश्किल जान पड़ता है कभी न कभी कोई एक्स्ट्रा लफ्ज़ उतरकर इसे खराब किये दे
रहा है...
छुट्टी का दिन बहुत शानदार होता है न, ज़िन्दगी की हर एक शय को हम फुर्सत में देखते हैं, आज भी अकेले यूँ बैठा बैठा उन कई सारे अँधेरे लम्हों को मोमबत्ती की लौ से रौशन कर रहा हूँ, तुम्हें लगता होगा मैं तुम्हें मिस कर रहा होऊंगा, लेकिन नहीं मैं तो उन बीते पन्नों को पढ़ पढ़ कर खुश हुआ जा रहा हूँ जहाँ से होकर गुज़रते हुए आज तुम्हारे लिए ये लम्हा चुराया है और ये ख़त लिख रहा हूँ...
सुनो, तुम्हें पता है जब भी अपने आने वाले कल के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे क्या नज़र आता है ? एक लॉन और उसमे लगा एक झूला, काफी देर तक उस लॉन में खड़ा रहता हूँ, फिर सामने की तरफ देखता हूँ तो एक घर, सपनों का घर... पीली-नीली दीवारें, हरी खिड़कियाँ, खिडकियों पर झूलती तुम्हारी पसंद के मनीप्लांट की लताएं... बालकनी में लगी वो विंड-चाईम... सिर्फ एक घर नहीं बल्कि उसके चारो तरफ लिपटे हमारे ढेर सारे सपने...
आने वाले आधे महीने के बीच हो सकता है न जाने कितने ही ऐसे लम्हें आयेंगे जब हम एक धागे के एक एक छोर को पकडे एक-दूसरे से दुबारा मिलने का इंतज़ार कर रहे होंगे, लेकिन मुझे यकीन इस बात का ज़रूर है कि जब हम मिलेंगे बहुत खूबसूरत होगा वो लम्हा...
खैर, बाहर का मौसम बहुत खुशगवार हो रहा है, हलकी बारिश और सर्द हवा... हवा चलती है तो जिस्म से हरारत सी पैदा होती है, फिर जल्दी से तुम्हारे यादों की चादर ओढ़ कर खुद को खुद में समेट लेता हूँ...
कैफ़ी आज़मी जी की एक ग़ज़ल याद आ रही है...
वो नहीं मिलता मुझे इसका गिला अपनी जगह
उसके मेरे दरमियाँ फासिला अपनी जगह...
छुट्टी का दिन बहुत शानदार होता है न, ज़िन्दगी की हर एक शय को हम फुर्सत में देखते हैं, आज भी अकेले यूँ बैठा बैठा उन कई सारे अँधेरे लम्हों को मोमबत्ती की लौ से रौशन कर रहा हूँ, तुम्हें लगता होगा मैं तुम्हें मिस कर रहा होऊंगा, लेकिन नहीं मैं तो उन बीते पन्नों को पढ़ पढ़ कर खुश हुआ जा रहा हूँ जहाँ से होकर गुज़रते हुए आज तुम्हारे लिए ये लम्हा चुराया है और ये ख़त लिख रहा हूँ...
सुनो, तुम्हें पता है जब भी अपने आने वाले कल के बारे में सोचता हूँ, तो मुझे क्या नज़र आता है ? एक लॉन और उसमे लगा एक झूला, काफी देर तक उस लॉन में खड़ा रहता हूँ, फिर सामने की तरफ देखता हूँ तो एक घर, सपनों का घर... पीली-नीली दीवारें, हरी खिड़कियाँ, खिडकियों पर झूलती तुम्हारी पसंद के मनीप्लांट की लताएं... बालकनी में लगी वो विंड-चाईम... सिर्फ एक घर नहीं बल्कि उसके चारो तरफ लिपटे हमारे ढेर सारे सपने...
आने वाले आधे महीने के बीच हो सकता है न जाने कितने ही ऐसे लम्हें आयेंगे जब हम एक धागे के एक एक छोर को पकडे एक-दूसरे से दुबारा मिलने का इंतज़ार कर रहे होंगे, लेकिन मुझे यकीन इस बात का ज़रूर है कि जब हम मिलेंगे बहुत खूबसूरत होगा वो लम्हा...
खैर, बाहर का मौसम बहुत खुशगवार हो रहा है, हलकी बारिश और सर्द हवा... हवा चलती है तो जिस्म से हरारत सी पैदा होती है, फिर जल्दी से तुम्हारे यादों की चादर ओढ़ कर खुद को खुद में समेट लेता हूँ...
कैफ़ी आज़मी जी की एक ग़ज़ल याद आ रही है...
वो नहीं मिलता मुझे इसका गिला अपनी जगह
उसके मेरे दरमियाँ फासिला अपनी जगह...
अब कभी तुझसे ना बिछरूँ ये दुआ अपनी जगह...
इस मुसलसल दौड में है मन्ज़िलें और फासिले
पाँव तो अपनी जगह हैं रास्ता अपनी जगह...
मौसम की ये खुशगवारी बरकरार रहे.....
ReplyDeleteएहसासों और यादों की ये पोटली सदा यूँ ही शामें महकाती रहे...
<3
सस्नेह
अनु
यादे चुपके से चली आती है और हम वो हसीं जिन्दगी फिर से जी लेते है जो बिता चुके हैं। अंतिम की पंक्तियां बेहद गजब की है।
ReplyDeleteमेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत हैं ...
http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/11/blog-post_6.html
Pyari wali smile aa gayi ye padhte hue.. Kaash koi aise hi humara bhi intzaar karta.. Sharmila Tagore is lucky :P ;)
ReplyDeleteSharmila tagore...he he..
DeletePost to bahut sundar hai..par ye neeli-peeli diwaro ke sath hari khidkiya..ghar banwana hai ya ghar me studio...;-)
ReplyDeleteha ha ha..
Deletebuddhu kahin ki... :)
Ek balkani aur usme padi 2 chair phir chay ke sath hone wali gup-shup phir yoon purane kisse yaad karke ek dusre ka majak uda kar khoob jor jor se hansna ki pura ghar gooj uthe phir haseen palo ki yadon me kho jana...
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteशेखर सुमन जी,
ReplyDeleteआप सब दोस्तों की बातचीत पढ़कर वैसा ही लगता है जैसे चुपचाप कोई तीसरा छिपकर किसी के आत्मीय वार्तालाप को सुन ले।
आप अपने ब्लॉग का नाम सार्थक किये रहते हैं 'खामोश दिल की सुगबुगाहट को' चुपचाप सुनने में जो मज़ा है वह प्रकट रूप में नहीं।
त्योहार आ रहे हैं ... दोस्तों से मिलना-जुलना होगा। घूमना-फिरना भी।
दीपावली की आप और आपके दोस्तों को शुभकामनाएँ।
Very Nice Blog of my Interest Thanks for this Blog...... Respect to Sumanji
ReplyDeleteaap hmesha he bhut acha likhta hai.....
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