ये बिलकुल नया शहर था मेरे लिए, नए लोग, नया माहौल... मैं तो पहले से ही सोच कर आई थी कि यहाँ ज्यादा किसी से दोस्ती नहीं करूंगी, किसी से ज्यादा घुलूंगी-मिलूंगी नहीं... बस अपना कमरा, अपनी पढाई और अपना अकेलापन... पता नहीं क्यूँ मुझे अब इस दुनिया में काफी इनसिक्योरिटी होने लगी थी, बस किसी तरह सब से बचने की कोशिश करती थी... दूसरों से ही क्यूँ, अपने आप से भी...
लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी... मुझे हमेशा ऐसा लगता था ये ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और इसे जीने के लिए हमारे पास वक़्त बहुत कम, बस इसे जी भर के, जी लेने की हड़बड़ी काफी कुछ छूटता-टूटता चला गया... काफी देर बाद ये एहसास हुआ कि ये ज़िन्दगी बड़ी तो है, पर आज़ाद नहीं है, हर एक नुक्कड़ पर कांटेदार तारों के बाड़ लगे हैं, अगर हम ज्यादा हड़बड़ी में हो, तो ये बहुत बेरहमी से खुरच देते हैं ज़िन्दगी की उन पोशाकों को, जिन्हें हम लपेट चलते हैं... मैं इस छिलन को नज़रंदाज़ करके आगे बढ़ जाना चाहती थी, लेकिन धीरे धीरे हिम्मत टूटती चली गयी, इन पगडंडियों पर धीमे धीमे चलने के चक्कर में काफी पीछे छूट गयी, ज़िन्दगी आगे भागी जा रही थी... शुरुआत में बहुत बेबसी सी लगती थी, आंसुओं से भीगे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से ढांपे हलके हलके सिसकियाँ भर लिया करती थी...
लेकिन अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, उन सारे सपनों को ज़िन्दगी की अलमारी के सबसे ऊपर वाले खानों में रख कर चुपचाप इस नए शहर में आ गयी थी... खुश रहने या फिर बस दिखते रहने की कवायद ज़ारी थी... कभी कभी अपने आस-पास की लड़कियों को देखती थी, एकदम बोल्ड, सबसे बेखबर, खूब जोर जोर से हल्ला मचाते हुए, लड़कों की तेज़ चलती बाईक को भी ओवरटेक करते हुए तो सोचती थी कि क्या मैं ऐसा नहीं कर सकती... फिर जल्द ही अपने आप को मना लेती थी शायद ऐसा मुमकिन नहीं है अब...
क्लास में बैठे बैठे अपने बगल वाली ख़ाली चेयर को देखकर यही सोचती थी कोई न ही आये तो अच्छा है, लेकिन एक दिन तुम्हें वहाँ बैठा देखकर थोडा आश्चर्य हुआ... जितना हो सके तुमसे कम बातें करने की कोशिश करती थी, लेकिन बगल में बैठते बैठते फोर्मलिटी की बातों से होते हुए हम कब दोस्त बन गए पता ही नहीं चला... तुमसे बात करना अच्छा लगता था, तुम्हारे साथ काफी रिलैक्स महसूस करती थी, जैसे कोई डर नहीं... एक अच्छा दोस्त, जो तुममे देखने लगी थी... लेकिन फिर अचानक से तुम्हारे जाने की खबर सुनी, जैसे किसी ने खूब जोर से धक्का दे दिया हो ऊंचाई पर से... मुझे आज भी याद है तुम्हें अलविदा कहते हुए स्टेशन पर मैं कितना रोई थी, शायद ही कभी किसी के लिए इतने आंसू गिरे होंगे... मेरे बगल वाली चेयर फिर से खाली हो गयी थी... आदत भी एक अजीब शय है छूटते नहीं छूटती... पाने-खोने का गणित भी बहुत झोलमझोल होता है, उसके पचड़े में पड़ने का कोई फायदा भी तो नहीं है न...
उस वाकये को गुज़रे अच्छा ख़ासा वक़्त बीत चुका है, उसके बाद मेरी ज़िन्दगी कई नुक्कड़ों से होती हुयी आज काफी हद तक आज़ाद आज़ाद सी लगने लगी है... आज जब मैं इस शहर को छोड़ कर जा रही हूँ, और तुम यहीं हो, इसी शहर में... मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रही हूँ, नज़र बार बार सेल-फोन की तरफ जाती है... कि एक कॉल, एक मेसेज ही सही कुछ तो आये, जिसमे तुमने बस एक अदद "हैप्पी जर्नी" ही लिख भेजा हो... ट्रेन आ गयी है, मैं अब भी अपने मोबाईल की तरफ देखती हूँ, वहाँ कुछ भी नहीं है... फिर उसे अपनी जेब में रखकर, अपना लगेज उठाकर, धीमे धीमे क़दमों से ट्रेन पर चढ़ जाती हूँ... मैं जा रही हूँ इस शहर को अलविदा करके, साथ ही साथ उस रिश्ते को भी जिसे मैंने दोस्ती समझ लिया था...
लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी... मुझे हमेशा ऐसा लगता था ये ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और इसे जीने के लिए हमारे पास वक़्त बहुत कम, बस इसे जी भर के, जी लेने की हड़बड़ी काफी कुछ छूटता-टूटता चला गया... काफी देर बाद ये एहसास हुआ कि ये ज़िन्दगी बड़ी तो है, पर आज़ाद नहीं है, हर एक नुक्कड़ पर कांटेदार तारों के बाड़ लगे हैं, अगर हम ज्यादा हड़बड़ी में हो, तो ये बहुत बेरहमी से खुरच देते हैं ज़िन्दगी की उन पोशाकों को, जिन्हें हम लपेट चलते हैं... मैं इस छिलन को नज़रंदाज़ करके आगे बढ़ जाना चाहती थी, लेकिन धीरे धीरे हिम्मत टूटती चली गयी, इन पगडंडियों पर धीमे धीमे चलने के चक्कर में काफी पीछे छूट गयी, ज़िन्दगी आगे भागी जा रही थी... शुरुआत में बहुत बेबसी सी लगती थी, आंसुओं से भीगे चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से ढांपे हलके हलके सिसकियाँ भर लिया करती थी...
लेकिन अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, उन सारे सपनों को ज़िन्दगी की अलमारी के सबसे ऊपर वाले खानों में रख कर चुपचाप इस नए शहर में आ गयी थी... खुश रहने या फिर बस दिखते रहने की कवायद ज़ारी थी... कभी कभी अपने आस-पास की लड़कियों को देखती थी, एकदम बोल्ड, सबसे बेखबर, खूब जोर जोर से हल्ला मचाते हुए, लड़कों की तेज़ चलती बाईक को भी ओवरटेक करते हुए तो सोचती थी कि क्या मैं ऐसा नहीं कर सकती... फिर जल्द ही अपने आप को मना लेती थी शायद ऐसा मुमकिन नहीं है अब...
क्लास में बैठे बैठे अपने बगल वाली ख़ाली चेयर को देखकर यही सोचती थी कोई न ही आये तो अच्छा है, लेकिन एक दिन तुम्हें वहाँ बैठा देखकर थोडा आश्चर्य हुआ... जितना हो सके तुमसे कम बातें करने की कोशिश करती थी, लेकिन बगल में बैठते बैठते फोर्मलिटी की बातों से होते हुए हम कब दोस्त बन गए पता ही नहीं चला... तुमसे बात करना अच्छा लगता था, तुम्हारे साथ काफी रिलैक्स महसूस करती थी, जैसे कोई डर नहीं... एक अच्छा दोस्त, जो तुममे देखने लगी थी... लेकिन फिर अचानक से तुम्हारे जाने की खबर सुनी, जैसे किसी ने खूब जोर से धक्का दे दिया हो ऊंचाई पर से... मुझे आज भी याद है तुम्हें अलविदा कहते हुए स्टेशन पर मैं कितना रोई थी, शायद ही कभी किसी के लिए इतने आंसू गिरे होंगे... मेरे बगल वाली चेयर फिर से खाली हो गयी थी... आदत भी एक अजीब शय है छूटते नहीं छूटती... पाने-खोने का गणित भी बहुत झोलमझोल होता है, उसके पचड़े में पड़ने का कोई फायदा भी तो नहीं है न...
उस वाकये को गुज़रे अच्छा ख़ासा वक़्त बीत चुका है, उसके बाद मेरी ज़िन्दगी कई नुक्कड़ों से होती हुयी आज काफी हद तक आज़ाद आज़ाद सी लगने लगी है... आज जब मैं इस शहर को छोड़ कर जा रही हूँ, और तुम यहीं हो, इसी शहर में... मैं ट्रेन का इंतज़ार कर रही हूँ, नज़र बार बार सेल-फोन की तरफ जाती है... कि एक कॉल, एक मेसेज ही सही कुछ तो आये, जिसमे तुमने बस एक अदद "हैप्पी जर्नी" ही लिख भेजा हो... ट्रेन आ गयी है, मैं अब भी अपने मोबाईल की तरफ देखती हूँ, वहाँ कुछ भी नहीं है... फिर उसे अपनी जेब में रखकर, अपना लगेज उठाकर, धीमे धीमे क़दमों से ट्रेन पर चढ़ जाती हूँ... मैं जा रही हूँ इस शहर को अलविदा करके, साथ ही साथ उस रिश्ते को भी जिसे मैंने दोस्ती समझ लिया था...
:( ye kyu??
ReplyDeletebas yun hi, kisi ki nazar se kuch zazbaat tapak rahe the... unhein padhkar shabdon ka roop de diya...
Deleteऔर जो रूप आपने इन शब्दों के सहारे दिए है शायद वो लड़की इतना बढ़िया से ना कह पाती... |
Deleteबहुत खूब...
Jo bhi ho par ye padh kar mai khoob roi aur cdac ke starting ke din yaad aa gaye..
ReplyDeleteतुम्को तो सब कुछ पढ्कर रोना ही आता है..,बुद्धु कहीं की... :(
Delete:)
Deleteहज़ार राहें मुड के देखीं, कहीं से कोई सदा न आई,
ReplyDeleteबड़ी अदा से निभाई हमने, तुम्हारी थोड़ी सी 'बेवफाई!'
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बेवफाई इसलिए इनवर्टेड कॉमा में रखी है कि हो सकता है
कुछ तो मज्बूरुयाँ रही होंगी,
यूं कोई बेवफा नहीं होता!
आपकी बात मानने का मन तो कर रहा है, लेकिन क्या करू जबकि पता हो कि ऐसी कोइ मज़बूरी नहीं थी... :(
Deletekathanak mein gazab prawaah hai...
ReplyDeletebahut accha laga padhna...
मन की चाल कठिन रे साधो,
ReplyDeleteसमझी जानी, ना अपनी रे।
रेलवे स्टेशन पर बुनी हुई कहानी लगती है...
ReplyDeleteएक पूरी अलग दुनिया है इन स्टेशनों पर !!
अच्छी लगी.
itni khubsurati se aapne apne dil ki baten kahi hai....kisi ko bhi rona aa jaye....ya aanshu thame bhi to kaise!!!!
ReplyDeleteanjaano ki duniya hai shekhar ji... yaha log hamesha anjaane hi rahte hai...
ReplyDeleteये दुनिया अनजानों की नहीं चाटुकारों की है....
Deleteओए... तुझे भी इतना अच्छा स्केच्च बनाना आता है, मुझे तो नहीं आता.... ;-)
ReplyDeletehann..par mai to dekh kar banati hun re tu to khud se hi likhta h...dats important....dhanyawaad waise tareef k liye...:)
ReplyDeleteदोस्त दोस्त ना रहा...............
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