यूँ तो हर किसी की ज़िन्दगी एक कविता के सामान होती है... लेकिन हर कविता का
रंग अलग अलग होता है, उनका छंद अलग होता है, उनका अंदाज़ अलग होता है... कुछ
कवितायें आस-पास के थपेड़ों से ठोकर खाते-खाते अधूरी ही रह जाती हैं... यूँ
बैठा सोचा के कभी अपनी आत्मकथा लिखूंगा, तो क्या
लिखूंगा... कहाँ से शुरुआत होगी और किन पैरहनों को सीते हुए आगे बढूंगा..
और कहीं बीच में ही विचारों को कोई धागा चूक गया फिर... खैर इधर-उधर नज़र फेरने के बाद छत की और देखने लगता हूँ, और कुछ यूँ सोचता हूँ...
एक महल है बादलों का
उसी में रहता हूँ आजकल
उसमे कोई दरवाज़ा नहीं
खिड़की भी नहीं,
पिछली बारिश में
जो एक सीढ़ी बनायी थी तुमने
उसी पर बैठ के
बांसुरी बजाया करता हूँ...
कमरे में बैठा हूँ, हालांकि यहाँ ठण्ड नहीं है लेकिन शाम होते-होते इतनी हवा तो बहती ही है कि सीने में सिहरन पैदा कर सके... चुपचाप ब्लैंकेट के कोनों को पकडे खुद को उसमे ज्यादा से ज्यादा उतार लेने की जुगत कर रहा हूँ... आस-पास सन्नाटे गूँज रहे हैं, पता ही नहीं चलता कि शायद कोई बाहर पुकार रहा हो मुझे.. पता नहीं क्यूँ जब भी गुलज़ार को लगातार सुनने लगता हूँ मन किसी छल्ले में बंध कर उड़ान भरने लगता है, जैसे साबुन के बुलबुले बिना किसी मंजिल के आसमान की तरफ रुख करने लगते है... कई सारे बीती बातें याद आने लगती हैं, पुरानी तस्वीरें देखने का मन करता है... उन तस्वीरें में कई ऐसे लोग दिखते हैं जो समय के साथ-साथ कहीं खो गए... उनका कोई पता नहीं, कोई खबर नहीं...
कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने धूप सूरज के पीठ की ...
बहुत आसान है उस गंध में
खो जाना जन्मों-जन्मों तक
और भूल जाना अपने अस्तित्व को ,
गर अचानक से न उभर आये
ख्याल किसी खोह-खंदक से
कि कहाँ है उस शरीर की जान
कहाँ हैं आत्मा और मन,
पर व्यर्थ है उनको ढूँढना भी
वो दोनों तो हाथों में हाथ डाले
बीती रात ही निकल गए
हमेशा की ही तरह
किसी अज्ञातवास पर ...
एक महल है बादलों का
उसी में रहता हूँ आजकल
उसमे कोई दरवाज़ा नहीं
खिड़की भी नहीं,
पिछली बारिश में
जो एक सीढ़ी बनायी थी तुमने
उसी पर बैठ के
बांसुरी बजाया करता हूँ...
कमरे में बैठा हूँ, हालांकि यहाँ ठण्ड नहीं है लेकिन शाम होते-होते इतनी हवा तो बहती ही है कि सीने में सिहरन पैदा कर सके... चुपचाप ब्लैंकेट के कोनों को पकडे खुद को उसमे ज्यादा से ज्यादा उतार लेने की जुगत कर रहा हूँ... आस-पास सन्नाटे गूँज रहे हैं, पता ही नहीं चलता कि शायद कोई बाहर पुकार रहा हो मुझे.. पता नहीं क्यूँ जब भी गुलज़ार को लगातार सुनने लगता हूँ मन किसी छल्ले में बंध कर उड़ान भरने लगता है, जैसे साबुन के बुलबुले बिना किसी मंजिल के आसमान की तरफ रुख करने लगते है... कई सारे बीती बातें याद आने लगती हैं, पुरानी तस्वीरें देखने का मन करता है... उन तस्वीरें में कई ऐसे लोग दिखते हैं जो समय के साथ-साथ कहीं खो गए... उनका कोई पता नहीं, कोई खबर नहीं...
कभी कभी
खुद के चारो तरफ
स्वतः ही
हो जाता है एक शून्य-निर्माण ...
शरीर दिखता भर है और
बस महसूस होती है उसकी गंध
गंध उन बासी साँसों की
जैसे बरसों से पड़े सीले कपड़ों को
दिखा दी हो किसी ने धूप सूरज के पीठ की ...
बहुत आसान है उस गंध में
खो जाना जन्मों-जन्मों तक
और भूल जाना अपने अस्तित्व को ,
गर अचानक से न उभर आये
ख्याल किसी खोह-खंदक से
कि कहाँ है उस शरीर की जान
कहाँ हैं आत्मा और मन,
पर व्यर्थ है उनको ढूँढना भी
वो दोनों तो हाथों में हाथ डाले
बीती रात ही निकल गए
हमेशा की ही तरह
किसी अज्ञातवास पर ...
हर शब्द की आपने अपनी 2 पहचान बना दी क्या खूब लिखा है "उम्दा "
ReplyDeleteवहा वहा क्या खूब लिखा है जी आपने सुबान अल्ला
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
वाह, क्या बात है ! पूरे रंग में हो...बहुत अच्छी लगी ये पोस्ट. फरवरी के जाड़े में गुनगुनी रजाई सी :)
ReplyDeleteबादलों का क्या भरोसा, मन करेगा तो बरस जायेंगे, नहीं तो उड़ जायेंगे अपने देश।
ReplyDeleteक्या कहूँ इस अन्दाज़ पर और इस गहराई पर
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteलाजवाब, उत्कृष्ट लेखन !
bahut khoobsurat!
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