नवम्बर की सर्दी कुछ ख़ास नहीं और यहाँ कोलकाता में तो बिलकुल भी नहीं...
सुबह के ९ बज रहे हैं, यूँ ही भटकने निकल पड़ा हूँ, बाकी के साथी आगे निकल
चुके हैं... मुझे तेज़ चलने का कोई मोह नहीं... सड़क के किनारे कई टूटी-फूटी
झोपड़ियां जैसे एक-दूसरे के ऊपर गिरने वाली हों... एक तरफ जहाँ हम 2BHK-3BHK
की दौड़ में लगे हैं वहीँ एक 10 बाय 8 के कपडे के टेंटनुमा मकान में एक पूरा
परिवार खुद को समेटने की कोशिश कर रहा है... साथ ही कोने में रखी माँ
दुर्गा की मूर्ति इस बात का भी एहसास दिलाती है कि उन्हें अब भी भरोसा है
उस शक्ति पर... मेरे अन्दर काफी देर तक एक सन्नाटा छा जाता है.. इन स्लम के
खंडहरों के नेपथ्य में दिखता एक अन्डर कंस्ट्रक्शन एपार्टमेंट मुझपर थूकता हुआ जान पड़ता है...
किसी फुटपाथ पर
सड़क के किनारे बनी
कई झोपड़ियों के
चूल्हे पर चढ़े
खाली हांडियों से,
किसी फुटपाथ पर
सड़क के किनारे बनी
कई झोपड़ियों के
चूल्हे पर चढ़े
खाली हांडियों से,
उन काली-मटमैली
काया पर लिपटे
फटे हुए चीथड़ों से,
काया पर लिपटे
फटे हुए चीथड़ों से,
वो मिटटी के फर्श पर
लेटा हुआ लाचार
जीवन झांकता है...
सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है... कहते हैं समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... जाने ये कैसी सफाई है जिसे बनाये रखने के लिए हर रात कई औरतें और लडकियां किसी अनजान भेड़िये का खाना बनती हैं... मैं फिर से अपने चेहरे पर थूक के कुछ छीटे महसूस करता हूँ...
लाल-नीली-पीली
चकमकाती बत्तियों के पीछे
उन अधखुली खिडकियों से
कुछ इशारे बुलाते
नज़र आते हैं,
सब देखते हैं
ललचाई आखों से
उन चिलमनों के पीछे
अधनंगे मांस की तरफ...
उन रंगीन कहे जाने वाले
रंडियों के कोठे से
एक नंगा-बेबस
जीवन झांकता है...
लेटा हुआ लाचार
जीवन झांकता है...
सूरज धीरे-धीरे अपने गंतव्य की तरफ बढ़ रहा है... हम भी धीरे थके क़दमों से उस तरफ बढ़ रहे हैं, जिधर से चांदनी भी बच कर निकल लेना चाहती है... ये वो बदनाम रास्ते हैं जिसके उसपार भी जीवन बसता है... खिडकियों और अधखुले दरवाजों के पीछे से कई सूनी आखें नज़र आती हैं... उन खिडकियों और दरवाजों की भी ज़रुरत बस इतनी है कि वहां से इशारे देकर खरीददारों को बुलाया जा सके... मिलता होगा सुकून यहाँ आकर कई लोगों को भी, जाने कैसे होंगे वो लोग जिनकी जवानियाँ मचलती होंगी ये देखकर, लेकिन ये नज़ारा मुझे तो जैसे टूटा खंडहर कर गया.. भले ही इन स्याह गलियों की रातें रंगीन होती हों लेकिन ये रंग मेरे अन्दर की सफेदी को तार तार कर गया... मुझे वो अधनंगा जिस्म कीचड़ में लिपटा जान पड़ता है... कहते हैं समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए वेश्या का होना ज़रूरी है... जाने ये कैसी सफाई है जिसे बनाये रखने के लिए हर रात कई औरतें और लडकियां किसी अनजान भेड़िये का खाना बनती हैं... मैं फिर से अपने चेहरे पर थूक के कुछ छीटे महसूस करता हूँ...
लाल-नीली-पीली
चकमकाती बत्तियों के पीछे
उन अधखुली खिडकियों से
कुछ इशारे बुलाते
नज़र आते हैं,
सब देखते हैं
ललचाई आखों से
उन चिलमनों के पीछे
अधनंगे मांस की तरफ...
उन रंगीन कहे जाने वाले
रंडियों के कोठे से
एक नंगा-बेबस
जीवन झांकता है...
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ReplyDelete.
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मैं भी अपने चेहरे पर थूक के कुछ छीटे महसूस कर रहा हूँ...
आभार दोस्त इन छींटों के लिये !
...
तुम ने तो कुछ कहने लायक ही नहीं छोड़ा ... :(
ReplyDeleteभावनात्मक हाय रे .!..मोदी का दिमाग ................... .महिलाओं के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteबहुत सुद्नर आभार आपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
एक शाम तो उधार दो
आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे
भावनात्मक
ReplyDeleteउतर गए हम यथार्थ में
ReplyDeleteमन पिघला गूढ़ परार्थ में......अत्यंत मार्मिक। बेहद विचारणीय।
aapka lekhan impressive hai..
ReplyDeleteमजबूर जीवन का दर्द है एक-एक शब्द में...प्रभावशाली अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजीवन किन किन रूपों में पसर जाता है, हम फिर भी उसे कहाँ नहीं ढूढ़ते हैं।
ReplyDeleteचम्पू (गद्य-पद्य का समन्वय)कथा सराहनीय !
ReplyDeleteSahi me jiwan jhankta h,har ek ke nazariye se,chaahe hum zindagi ke sahi mod pr khade ho ya galat pr ''jiwan jhankta hai''
ReplyDeleteaur aap ke lekhni ke kya kahne..umda.
namskar :)
Aaj pahchaana hai... Kal sudhi lenge... Parso niraakaran dhundhenge... Sabhyata ke vikaas me maanav apni paashvik ichchaao ko lekar kuch zyada hi uddand ho chala hai. Phir bhi maryaada ki zimmedaari striro par hi laadi gayi hai. Striyo ke liye apmaanjanak shabd hamaare samaaj ne gadh liye kintu un purusho ka kya jo in shabdo ke janmdata hai...?
ReplyDeleteजीवन का एक रंग ऐसा भी
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