कितनी बार हम पूछते हैं
एक-दूसरे से एक ही सवाल
कि हम क्यूँ बने हैं एक दूसरे के लिए,
हम क्यूँ खड़े हैं साथ
और क्यूँ हर लम्हे को
छान रहे हैं चाँद की छलनी से,
वक़्त के हर गणित के साथ
हम समझना चाहते हैं
हमारे बीच का विज्ञान,
कितनी ही बार
तैरती है खामोशियाँ हमारे मध्य
जैसे खीच दी हो किसी ने
कोई समानांतर रेखा
जिसका कोई छोर न दिखता हो,
जैसे लगता है हम खड़े हैं अलग-अलग
और नहीं मिल सकेंगे कभी,
तभी अचानक से हम पहुँच जाते हैं
अनंत की धुरी पर
और घूमते हुये छू लेते हैं
एक दूसरे की उपस्थिति को,
ये पहेली जैसे सूडोकू की तरह है
कहीं से भी शुरू करें
हम वहीं पहुँचते हैं
उसी आखिरी खाने पर
जिसका अंक हमें
मिल कर सुलझाना पड़ता है,
अपनी ज़िंदगी का आखिरी खांचा
भर लेने के बाद
त्वरित हो जाती हैं साँसे
और मान लेते हैं हम कि
हम प्रेम में हैं,
हाँ-हाँ हम प्रेम में ही हैं...
एक-दूसरे से एक ही सवाल
कि हम क्यूँ बने हैं एक दूसरे के लिए,
हम क्यूँ खड़े हैं साथ
और क्यूँ हर लम्हे को
छान रहे हैं चाँद की छलनी से,
वक़्त के हर गणित के साथ
हम समझना चाहते हैं
हमारे बीच का विज्ञान,
कितनी ही बार
तैरती है खामोशियाँ हमारे मध्य
जैसे खीच दी हो किसी ने
कोई समानांतर रेखा
जिसका कोई छोर न दिखता हो,
जैसे लगता है हम खड़े हैं अलग-अलग
और नहीं मिल सकेंगे कभी,
तभी अचानक से हम पहुँच जाते हैं
अनंत की धुरी पर
और घूमते हुये छू लेते हैं
एक दूसरे की उपस्थिति को,
ये पहेली जैसे सूडोकू की तरह है
कहीं से भी शुरू करें
हम वहीं पहुँचते हैं
उसी आखिरी खाने पर
जिसका अंक हमें
मिल कर सुलझाना पड़ता है,
अपनी ज़िंदगी का आखिरी खांचा
भर लेने के बाद
त्वरित हो जाती हैं साँसे
और मान लेते हैं हम कि
हम प्रेम में हैं,
हाँ-हाँ हम प्रेम में ही हैं...
बहुत सुन्दर शेखर भाई!
ReplyDeleteकिसी पुराने भूले भटके को ब्लॉग पर देखकर कितना अच्छा लगता है... :)
Deleteप्रेम हो तो ऐसी कशमकश चलती रहती है ... पर प्रेम फिर भी रहता है ...
ReplyDeleteगहरी भावपूर्ण रचना ...