उसकी ज़िंदगी की सोच और उसे जीने का ढंग अलग अलग वक़्त पर अलग अलग टाइप का रहा... 2001 से पहले वो बहुत ही डरपोक, दब्बू और ख़ामोश सा रहने वाला इंसान था, फिर ज़िंदगी बदली और मैंने उसे दुनिया से लड़ते, सीखते, अपने ख़्वाब तलाशते देखा.... वो अब ग़लत बात के लिए विद्रोह करता था, चीजें नहीं मिलने पर झगड़ता था... उसने ज़्यादा इंसान नहीं बनाए, जो बनाए भी वो अलग होते चले गए... उसका बेबाक़ीपन किसी को नहीं सुहाता था, कई लोग ये भी बर्दाश्त नहीं कर पाए कि उसे ज़िंदगी के बारे में इतना सब कुछ कैसे आता है... पर इस अचानक आए बदलाव और सफलता ने उसे कहीं ना कहीं एक ग़ुरूर दे दिया था, वो किसी का लिहाज़ नहीं करता, उसने और झगड़े किए उनसे भी जो शायद उसकी ज़िंदगी के सबसे अहम लोग थे... पर उसका भी जवाब था क़िस्मत के पास, उससे धीरे धीरे वो सब कुछ छिनता गया जिसका उसे गुरुर था, वो भी अचानक से, एक झटके में... अब उसे फिर से डर लगने लगा है, कि कहीं बाक़ी जो बचा है और जो नया कुछ भी मिल रहा है वो भी न छिन जाए... डर इंसान को कमजोर बनाता है, मैं उसे हिम्मत देता हूँ... उसे कहता हूँ कि उसने बस एक गलती की... पर उस गलती का नाम नहीं बताया... दरअसल वो गलती थी भी नहीं...
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वो अक्सर अपनी बीती बातों को अपना अतीत कहता है, मैं उसे समझाता हूँ कि अतीत जैसा कुछ नहीं होता, जो भी हुआ या हो रहा है उसका असर वर्तमान और भविष्य में रहेगा ही रहेगा... अब उसका असर हम सकारात्मक रखते हैं या नकारात्मक वो हमपे निर्भर करता है.... मैं उसे बचपन से जानता हूँ, ये भी जानता हूँ क़िस्मत उसके साथ थोड़ी बेरुख़ी से पेश आयी है, पर उसमें मुझे ग़ज़ब की जिजीविषा नज़र आती है... उसे बस थोड़ी सी हिम्मत दे दो और वो फिर से उठ खड़ा होता है.... जतिन कहते हैं, इंसान को सेल्फ़ मोटिवेटेड होना चाहिए... लेकिन इस "चाहिए" और "है" के दरम्यान बहुत गहरी खाई है... कहना जितना आसान है, उसे अपने काँधे पर उठा के चलना उतना ही मुश्किल... मैं और वो घंटों बातें करते हैं, वो मुझे हर उस शहर की कहानी सुनाता है जहां से उसे इश्क़ हुआ था... वो शहर से हुए इश्क़ की कहानी तो सुनाता है, लेकिन इंसानों से हुए इश्क़ की कहानी बहुत सफ़ाई से छुपा ले जाता है... पर वो कहानियाँ, उसकी आँखों में साफ़ नज़र आती है... मैं पूछता हूँ कि अगर मैं उसे अपनी कहानी का किरदार बनाऊँ तो उसका नाम क्या दूँ, वो आसमान की तरफ़ देखता और कहता है मुझे किसी नाम से मत बुलाना... नाम अक्सर धोखा देते हैं....
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उसे समझ नहीं आता कि वो ज़िंदगी में कहाँ सही रहा, कहाँ ग़लत... वो अक्सर शिकायत के लहजे से आसमाँ की तरफ़ देखता है, लेकिन उसे पता कुछ शिकायतों का कोई मतलब नहीं होता... वो शिकायतें बारिश की बूँदों के साथ ज़मीन में मिल जाने वाली है... मैं उससे बातें करते हुए अक्सर भूल जाता हूँ कि वो दुखी है, वो चेहरे से दुखी नहीं दिखता. ना ही उसने सपने देखने छोड़े हैं, पर मुझे उसकी आँखों में अब अजीब सा डर दिखायी देता है.... हो सकता है इंसान सपने देखना ना छोड़े लेकिन, उसे देखते हुए डरने ज़रूर लगता है... वो मुझे बीती रात आए सपने के बारे में बताता है, कि कैसे उसे कोई कोस गया था सपने में, ये कहते हुए कि ये सब कुछ जो भी हुआ उसमें बस उसकी गलती थी... वो मुझसे पूछता है कि सच में उसकी गलती थी क्या, मुझे इसका जवाब नहीं पता...
मैं भी एक शिकायत भरे लहजे में आसमाँ की तरफ़ देखता हूँ...
शाम हो चुकी है और हमेशा की तरह, बैंगलोर बारिश की बूँदों से भीग चुका है...
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मैं हमेशा अपनी हर पोस्ट में एक तस्वीर लगाता था, लेकिन तस्वीरें भी झूठ बोलने लगी हैं इन दिनों...
बेहतरीन
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२५-०७-२०२०) को 'सारे प्रश्न छलमय' (चर्चा अंक-३७७३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी