"पता नहीं... शायद अब लिखने को कुछ बचा नहीं.... और अब मैं कुछ लिखना भी नहीं चाहता, अनजाने लोगों के दिल के तार छेड़ने के लिए इंसान कब तक लिख सकता है... पता है, मेरे पास पढ़ने वालों की कभी कमी नहीं रही.. लेकिन अब शायद वक़्त आ गया है कि ज़िन्दगी के इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाए... "
"लेकिन तुम तो कहते थे कि लिखना कभी नहीं छूटना चाहिए, ये लाइफलाइन है...."
"हम्म्म्म... लाइफलाइन तो थी, लेकिन अब वो बेचैनी नहीं होती कुछ लिखने की... "
"फिर लेखक बनने का ख्वाब ?? "
"लेखक तो मैं आज भी हूँ, हमेशा रहूंगा... हाँ... एक किताब का क़र्ज़ है, वो लिखूंगा ज़रूर कभी जब लहरें शांत हो जाएँ आस-पास... और छोटा-मोटा तो लिखता ही रहूंगा, बस इस उम्मीद में कि वो पढ़कर कहीं कोई WOW कहके मुस्कुराते हुए ताली बजा रहा होगा... "
" ..... "
" और एक बात, अब मेरी लिखाई और फोटोग्राफी में वो पहले वाली बात नहीं रही, बहुत कोशिश करने के बाद भी I am not able to create a masterpiece anymore... "
"पर, पलायन करना तो उपाय नहीं है ना..."
"पता है, कल ही एक फ़िल्म देख रहा था 'तृभंग', उसमें अरविन्दो कहता है कि जो हुआ वो होना निश्चित था, जो हो रहा है वो लिखा हुआ है और जो होने वाला है वो होकर ही रहेगा, तो वक्त को बेहतर करने की कोशिश ज़रूरी है लेकिन उसे जस के तस मान लेना पलायनवाद नहीं है... तो अगर और लिखना, अवश्यम्भावी होगा तो लिखूंगा ही..."
मैं इस बहते पानी के पन्ने पर,
लिखना चाहता हूँ,
उसी तरह जैसे
पहले हवाओं और ओस की बूँदों पर
लिख दिया करता था...
बेख़याली में भी लिखे शब्दों की
क़समें खाकर
आशिक़ आह भरा करते थे...
पर मेरी कविताएं
कमज़ोर हो गई हैं इन दिनों,
अब इन कविताओं के फेफड़ों में,
उन साँसों की खुशबू नहीं आती....
अब इन कविताओं के फेफड़ों में,
उन साँसों की खुशबू नहीं आती....