जानता हूँ, अब पहले की तरह न सोच पाऊंगा, न ही लिख पाऊंगा लेकिन टूटे-फूटे ख्यालात तो आते ही रहते हैं...
रज़ाई में दुबक कर
लिखी गयी कविताएँ
अक्सर गर्मियों में
पिघल जाया करती हैं…
इसलिए
मैंने लिखी हैं कुछ नज़्में
जिनके अंदर छिपी हैं
मेरे दिल की चिंगारियाँ…
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जब रात को बहुत तेज नींद आती है न, तो मैं चाय में चाँद घोर कर पी जाया करता हूँ…
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मैं चुपचाप हूँ,
इसलिए नहीं कि
कहने को कुछ नहीं,
बल्कि इसलिए कि
कुछ कहे-सुने
के दरम्यान
मेरी धड़कनें खो जाती है….
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इन दिनों ज़िंदगी में धूप बहुत ज्यादा है, सूरज को पीठ दिखाता हूँ तो सीने तक उसकी जलन महसूस होती है...
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लिखना कोई काम नहीं है, बस एक सफ़र है… उन रास्तों से गुजरने जैसा जहां बैठे बैठे मन कई ख़याल बुनता है…
कुछ ख़याल हवा हो जाते हैं, कुछ कुलाँचे भरते हुए दूसरों के मन को भी अपने साथ लिए चलते हैं… मेरे शब्दों के साथ चलने वालों का कारवाँ बहुत पुराना है… जो लोग मेरे साथ नए जुड़े हैं और मेरा लिखा नहीं पढ़ा कभी उन्हें ये किसी लतीफ़े से कम नहीं लगता…
मेरे मन के नुक्कड़ पर,
तुम भी तो लिखो कुछ नज़्में
जो मेरी पलकों के सिरे को
थामें और ले चलें कहीं और,
जहाँ चाँदनी हो, समंदर हो,
तितलियाँ हो, और हों मेरे सपने..
जाने क्यूँ,
उदास सा है मन,
बिना कुछ लिखे,
बिना कुछ पढ़े….
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मेरे बटुए में सबसे ज़्यादा
शनिवार के सिक्के हैं,
खनकते हैं और पुराना वक़्त
छितरा के गिर पड़ता है…
ये सिक्के बटोरते बटोरते
जाने कब मेरी ज़िंदगी
बुधवार हो गयी…
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सबने सोचा तो होगा कई बार न
कि काश पीछे जाकर
सही कर सकते कुछ चीज़ों को,
अब जब के पीछे नहीं जा सकते,
चलो आगे चलें…
कितनी सुन्दर पोस्ट👌
ReplyDeleteआगे चलना, अकेले चलना... यही सफर है।
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