घर लौटने का सुख हमेशा ही कुछ खास होता है। ये वो जगह होती है, जहाँ हर दीवार, हर कोना एक किस्सा कहता है। कुछ जगहें सिर्फ जगह नहीं होतीं — वो वक़्त का ठहराव होती हैं, एक एहसास, जो हर बार लौटने पर हमें थोड़ा और खुद से मिलवाता है। मेरे लिए कटिहार वैसी ही जगह है।
इस बार जब मैं कटिहार आया, तो शहर वही था, लेकिन मेरे साथ मेरी छोटी-सी दुनिया भी थी — प्रियंका और हमारी बेटी शिवी, जो अभी पौने दो साल की है। एक दिन यूँ ही हल्की-फुल्की बातों के बीच प्रियंका ने कहा, “कचरी बनाते हैं।” मेरे अंदर कुछ खिल गया — वो स्वाद, वो प्रक्रिया, वो भूली-बिसरी रसोई की स्मृतियाँ जैसे फिर से जाग उठीं। मैंने तपाक से जोड़ा, “दाल बड़ी भी बनायें।”
बस, फिर क्या था! जैसे एक छोटा-सा उत्सव मनाने की वजह मिल गई। अगले दिन सुबह-सुबह तैयारी शुरू हो गई। घर की रसोई में सारा माहौल बदल चुका था। उरद दाल पानी में भीग रही थी और बगल में चावल भी धुलकर छन्नी में रखे थे, ताकि सारा पानी निकल जाए। प्रियंका ने चावल में थोड़ा-सा जीरा और अजवाइन मिलाया और फिर उन्हें अच्छे से सुखाने के लिए फैला दिया। ये प्रक्रिया जितनी साधारण लगती है, उतनी ही जरूरी भी होती है। जीरा और अजवाइन की हल्की सुगंध चावल में बस जाती है, और यही स्वाद कचरी में जान डाल देता है।
प्रियंका बड़ी निपुणता से काम में लगी थी, और मैं कभी-कभी मदद करने के बहाने उसके आसपास मंडरा रहा था। रसोई में मसालों की खुशबू घुलने लगी थी, लेकिन इस कहानी की सबसे प्यारी बाधा थी — शिवी। रसोई के हर कोने में उसकी नन्ही उंगलियाँ मौजूद थीं। तभी हमारी छोटी-सी नन्ही शैतान शिवी ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। उसके कदम जहाँ भी पड़ते हैं, वहाँ खिलखिलाहट और हलचल दोनों साथ चलती हैं।जैसे ही दाल पिसी और उसमें मसाले मिलाकर बड़ी का घोल तैयार हुआ, शिवी ने अपनी जिज्ञासा जतानी शुरू कर दी। उसके नन्हे-नन्हे हाथ बड़ी को छूने के लिए आगे बढ़ रहे थे। मैंने उसे गोद में उठाया, लेकिन उसकी निगाहें रसोई में बनते हर व्यंजन पर टिकी रहीं।
यह अनुभव मेरे लिए सिर्फ खाने-पीने का मामला नहीं था, बल्कि यह अपनेपन की, परिवार की और घर के उन छोटे-छोटे पलों की याद दिलाने वाला था। जो शब्दों में बयाँ नहीं हो सकते, लेकिन दिल में गहरे उतर जाते हैं। शायद असली कहानी यही होती है — उन पलों को सहेजना, जो कभी लौटकर नहीं आते, लेकिन अपनी ख़ुशबू हमेशा पीछे छोड़ जाते हैं।
इस बार की होली भी खास रही — शिवी की दूसरी होली, लेकिन कटिहार में पहली। पहली बार रंगों को देखकर उसकी आँखों में जो हैरानी और खुशी थी, उसे शब्दों में बांध पाना मुश्किल है। पिछली होली में वो बहुत छोटी थी, रंगों का मतलब भी नहीं समझती थी। लेकिन इस बार, जैसे ही रंगीन पिचकारी और गुलाल उसके हाथ में आया, वो खिल उठी।
उसने पहले थोड़ा हिचकते हुए अपनी हथेली पर गुलाल लगवाया। फिर धीरे-धीरे वो खुद दूसरों को रंगने लगी। आँगन में रंगों के छींटे उड़ रहे थे, और वो बीच में हँसती हुई दौड़ रही थी। पानी की बाल्टी में हाथ डालना, चेहरे पर रंग लगते ही खिलखिलाकर हँसना — ये सब उसके लिए पहली बार था, लेकिन हमारे लिए ये पल हमेशा के लिए यादगार बन गए।
उस दिन कटिहार की छत सिर्फ रंगों से नहीं, भावनाओं से भी भीग गयी थी। और मेरे लिए वो पल... जैसे वक़्त वहीं ठहर गया।
कटिहार ने मुझे हमेशा सहेजा है — एक पुराने लेखक को, जो कुछ सालों से लिखना भूल गया था, क्योंकि पढ़ने वाले कम हो गए थे। लेकिन यहाँ, इन दिनों में, मैंने पाया कि लिखना कभी किसी बाहरी सराहना पर निर्भर नहीं करता — यह एक भीतर की आग है, जो तब भी जलती है जब कोई नहीं देख रहा होता।
और इस आग को फिर हवा मिली — प्रियंका की रसोई से, शिवी की पहली रंगों-भरी होली से, और कटिहार की उस धूप से जिसमें चावल सूख रहे थे।
ये सिर्फ एक रेसिपी नहीं थी। ये एक जीवन-रस था, जो घर, रिश्तों, और समय के साथ पककर तैयार हुआ था। अगली बार जब कोई कहे “कचरी बनाते हैं,” तो समझिए — कोई पुराने दिनों को ज़िंदा कर रहा है, कोई रिश्तों को धीमी आँच पर सेंक रहा है, और कोई अपने भीतर की शांति को फिर से महसूस कर रहा है।