बैंगलोर की शामें हमेशा एक-सी नहीं होतीं।
कभी अचानक बादल उमड़ आते हैं, कभी हल्की-सी धूप लंबी सड़क पर बिखर जाती है। ऑफिस से लौटते वक्त अंशुल का सबसे प्यारा ठिकाना था — पार्क का एक कोना, जहाँ पुराने बरगद के नीचे लोहे की एक बेंच रखी थी।
उस बेंच पर बैठते ही शहर का शोर कुछ देर के लिए धुँधला हो जाता था। ट्रैफिक के हॉर्न, ऑटो वालों की आवाज़ें, और कॉफी की खुशबू से भरे ठेले — सब पीछे छूट जाते थे।
उस दिन भी अंशुल वहीँ आया था।
थकान उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी। नोटबुक खोली और वही पुरानी आदत — दो-चार लाइनें लिखना, फिर मिटा देना। उसके मन में एक ही सवाल चक्कर काट रहा था:
"क्या कोई इंसान मुझे सच में… टूटा हुआ देख कर भी चाहेगा?"
इसी सोच में डूबा था कि उसने देखा — पास वाली बेंच पर एक लड़की आकर बैठी। हल्की-सी बारिश शुरू हो चुकी थी, और वो लड़की छतरी न खोलकर बारिश को चेहरे पर पड़ने दे रही थी। बाल उसके गालों से चिपक रहे थे।
कुछ पल दोनों खामोश रहे।
फिर लड़की ने धीरे से पूछा —
“तुम्हें कभी डर लगता है… कि कोई तुम्हें पूरी तरह चाहेगा या नहीं?”
अंशुल ने किताब बंद कर दी।
ये वही सवाल था जो उसके भीतर महीनों से अटका पड़ा था।
“हाँ,” उसने कहा,
“डर हमेशा रहता है। लोग अक्सर कहते हैं ‘हम चाहेंगे’, पर जब टूटा-बिखरा इंसान सामने आता है, तो उनका प्यार भी काँच की तरह टूट जाता है।”
लड़की ने हल्की-सी मुस्कान दी। मुस्कान में दर्द था, जैसे वो जवाब सुनना चाहती भी थी और डरती भी।
अगले कई दिनों तक वो लड़की — रागिनी — उसी पार्क में मिलने लगी।
कभी दोनों बारिश से बचते हुए चायवाले के ठेले तक चले जाते। भाप उठते कपों के बीच उनकी बातचीत में भी एक गर्माहट घुलने लगी।
कभी वो पार्क के रास्तों पर देर तक चलते रहते। पेड़ों के नीचे गिरी पत्तियों पर कदम रखते हुए, खामोश रहते लेकिन भीतर बहुत कुछ कह जाते।
रागिनी बहुत बातें करती थी — अपने बचपन के बारे में, कॉलेज के दिनों के बारे में, और उस रिश्ते के बारे में जिससे वो बँधी हुई थी लेकिन खुश नहीं थी।
“वो इंसान मुझे चाहता तो है… पर टूट कर नहीं,” उसने एक बार कहा था।
“उसके प्यार में मजबूरी ज़्यादा है, गहराई कम।”
अंशुल सुनता रहा। हर शब्द उसके भीतर चोट करता, लेकिन वो समझता था कि प्यार का मतलब किसी को बाँधना नहीं, बल्कि उसे समझना है।
एक शाम की बात है।
बारिश बहुत तेज़ थी। बिजली चमक रही थी, और पार्क लगभग खाली था। रागिनी और अंशुल उसी बरगद के नीचे खड़े थे। हवा इतनी तेज़ थी कि उनकी छतरियाँ उलट रही थीं।
रागिनी ने अचानक कहा —
“तुम जानते हो न, कि शायद मैं कभी तुम्हारी नहीं हो पाऊँगी?”
अंशुल ने उसकी आँखों में देखा।
उन आँखों में सवाल भी थे और डर भी।
“जानता हूँ,” उसने धीरे से कहा।
“लेकिन ये भी जानता हूँ कि अगर कोई तुम्हें टूट कर चाहेगा… तो वो शायद मैं ही होऊँगा।”
कुछ पल खामोशी रही।
सिर्फ़ बारिश की बूँदें गिरती रहीं।
फिर एक दिन रागिनी नहीं आई।
ना उस शाम, ना अगले दिन।
पार्क की बेंच खाली थी, बरगद का कोना चुप था।
अंशुल कई हफ्ते इंतज़ार करता रहा।
उसकी नोटबुक में अब सिर्फ़ रागिनी से जुड़े शब्द भरते गए — बारिश, मुस्कान, डर, अधूरापन।
उसने कभी तलाशने की कोशिश नहीं की। शायद उसने समझ लिया था कि कुछ रिश्ते सिर्फ़ एक शहर, एक पार्क और एक मौसम तक के लिए आते हैं।
लेकिन आज भी जब बारिश होती है, अंशुल उसी बरगद के नीचे बैठ जाता है।
लोग दौड़कर शेल्टर में भागते हैं, लेकिन वो भीगता रहता है — जैसे किसी अदृश्य साथी के साथ खड़ा हो।
उसके मन में अब भी वही सवाल गूंजता है—
"क्या कोई इंसान मुझे टूटा हुआ देख कर भी चाहेगा?"
और उसके भीतर से जवाब आता है—
"हाँ, शायद… वो आई थी। बस हमारे बीच वक़्त सही नहीं था।"
उसी वक़्त कहीं दूर...
आज भी जब बारिश होती है, रागिनी खिड़की पर खड़ी होकर बाहर देखती है।
उसकी हथेलियाँ भीग जाती हैं, और वो बरगद के नीचे खड़े उस लड़के को याद करती है, जिसने उसे पहली बार आईना दिखाया था।
वो जानती है कि अंशुल ने शायद उसे आज भी वहीं तलाशना बंद नहीं किया होगा।
और उसके मन में एक चुप सवाल गूँजता है:
"क्या कोई मुझे टूट कर चाहेगा?"
और फिर भीतर से जवाब आता है:
"हाँ… वो था। बस मैंने ही हिम्मत नहीं की।"
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