Friday, August 22, 2025

बारिश का वो कोना... - 2

ऑफिस से निकलते ही अंशुल ने देखा कि आसमान काले बादलों से भरा है और हवा में मिट्टी की गंध फैली हुई है। बेंगलुरु की शामें वैसे भी अक्सर नमी से भरी रहती हैं, लेकिन उस दिन बारिश कुछ ज़्यादा ही तेज़ थी। लोग दौड़ते हुए ऑटो पकड़ रहे थे, छतरियाँ सिर पर तानकर इधर-उधर भाग रहे थे, मगर अंशुल ने अपने कदम धीमे कर दिए। उसे न भीगने की जल्दी थी, न घर पहुँचने की। दरअसल, इन दिनों उसके भीतर इतनी बेचैनी जमा हो गई थी कि बाहर की बारिश उसे राहत-सी लग रही थी।

वो धीरे-धीरे कब्बन पार्क की तरफ़ बढ़ा। ये जगह उसके लिए हमेशा किसी दोस्त जैसी रही थी। बरगदों की लंबी जटाएँ, गीली मिट्टी की खुशबू, और बारिश के बाद पत्तों पर ठहर गए छोटे-छोटे पानी के कतरे — सब उसे खींचकर वहीं ले जाते थे।

बरगद के पास वाली पुरानी बेंच की ओर बढ़ते हुए अचानक उसकी नज़र उस पर बैठी एक लड़की पर पड़ी। भीगी हुई हवा के बीच उसने चेहरा साफ़ देखने की कोशिश की और ठिठक गया। वो रागिनी थी।

कितने साल बीत गए थे? शायद पाँच या छह। फिर भी उसकी आँखें उसी तरह पहचान में आ रही थीं। वही आँखें जिनमें कभी उसने अपना पूरा भविष्य देख लिया था।

अंशुल के होंठों पर हल्की मुस्कान आई, मगर दिल धड़कने लगा। उसने हिम्मत करके धीरे से पुकारा, "तुम?"
रागिनी ने सिर उठाया, और बिना हैरानी दिखाए मुस्कुरा दी — एक थकी, लेकिन गहरी मुस्कान। "हाँ, मैं," उसने कहा।

दोनों कुछ पलों तक चुपचाप खड़े रहे। बारिश उनके बीच ऐसे गिर रही थी जैसे शब्दों के रास्ते में कोई पर्दा डाल दिया हो। फिर अंशुल ने पास आकर धीरे से पूछा, "बैठूँ?"
रागिनी ने बस सिर हिलाया।

बेंच पर दोनों एक-दूसरे से थोड़ा फासला बनाकर बैठ गए। वही बेंच जिस पर कभी उन्होंने साथ बैठकर कॉफ़ी पी थी, किताबें साझा की थीं, और ख्वाबों के धागे बुने थे।

अंशुल ने एक टहनी उठाकर ज़मीन पर लकीरें खींचनी शुरू कीं। उसने देखा कि रागिनी की हथेलियाँ हल्की-सी कांप रही थीं। शायद ठंड से, शायद किसी दबे एहसास से।

"कभी सोचा नहीं था, यहाँ मिल जाओगी," अंशुल ने धीमे स्वर में कहा।
रागिनी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "ज़िंदगी हमें वहीं घुमाकर लाती है जहाँ से हम भागते हैं।"

फिर चुप्पी। बारिश धीरे-धीरे कम हो रही थी। बूंदें अब मोटी नहीं थीं, बस हल्की फुहार की तरह गिर रही थीं। पार्क के कोने से आती मिट्टी और घास की मिली-जुली खुशबू उन्हें किसी पुराने ज़माने में ले जा रही थी।

काफी देर बाद रागिनी ने कहा, "जानते हो, इन सालों में सबसे बड़ा डर किस बात का लगा?"
अंशुल ने उसकी तरफ़ देखा। "किस बात का?"
उसने नजरें झुकाते हुए कहा, "इस बात का कि क्या कभी कोई मुझे फिर से सच में टूटकर चाहेगा भी या नहीं।"

ये सुनते ही अंशुल के भीतर कुछ हिल गया। उसे लगा जैसे किसी ने उसके दिल के सबसे छुपे कोने से उसके ही शब्द चुरा लिए हों। वही डर तो उसके भीतर भी था। वही सवाल कि क्या किसी दिन उसे भी वैसा प्यार मिलेगा, जैसा उसने कभी दिया था।

कुछ पलों तक दोनों बस एक-दूसरे को देखते रहे। उस खामोशी में कोई शिकायत नहीं थी, न कोई गिला, बस एक गहरी थकान और अनकही चाहत थी।

आसमान अब साफ़ हो रहा था। पेड़ों से टपकती बूंदों की आवाज़ गूँज रही थी। रागिनी ने धीरे-धीरे उठते हुए कहा, "चलूँ?"
अंशुल चाहता था कि वो कह दे—"थोड़ी देर और बैठो, अभी मत जाओ।" लेकिन उसके होंठों पर शब्द नहीं आए। वो बस मुस्कुरा दिया।

रागिनी जाते-जाते एक बार मुड़ी। उसकी आँखों में सवाल था, और शायद थोड़ी उम्मीद भी। अंशुल ने हल्के से सिर हिलाया, मानो कहना चाहता हो कि हाँ, शायद ये आख़िरी मुलाक़ात हो।

रागिनी के जाने के बाद कई हफ़्तों तक अंशुल का वही हाल रहा—ऑफ़िस से लौटकर वो देर रात तक खाली स्क्रीन के सामने बैठा रहता, कोडिंग करता, लेकिन बीच-बीच में हाथ रुक जाते। उसकी डायरी में दो-तीन अधूरी लाइनें ही जुड़ीं, और फिर बैकस्पेस सब मिटा देता।

वक़्त बीतता गया। रागिनी की याद धीरे-धीरे दर्द से हटकर एक अजीब-सी खामोशी में बदलने लगी। जैसे ज़िंदगी ने उसके भीतर कहीं गहरी तह बना दी हो, जहाँ वो किसी को आने नहीं देता।

फिर भी, अंशुल ने महसूस किया कि अब हर चीज़ को देखने का उसका नज़रिया अलग हो गया है।
कब्बन पार्क से गुज़रते हुए उसने पहली बार उन बुज़ुर्गों पर ध्यान दिया जो रोज़ शाम को हँसते-खिलखिलाते एक गोल घेरे में इकट्ठा होते थे।
कॉफ़ी कैफ़े में बैठकर उसने देखा कि आसपास बैठे लोग कितनी आसानी से अपने-अपने दुख-सुख बाँट लेते हैं।
और एक दिन उसने खुद को किताबों की दुकान पर खड़े पाया, जहाँ न जाने क्यों उसने एक शायर की किताब उठा ली।

उस किताब के पहले ही पन्ने पर लिखा था—
"इश्क़ हमेशा मिलन का नाम नहीं होता, कभी-कभी ये तुम्हें अपनी असल पहचान दिलाने का रास्ता भी बन जाता है।"

वो लाइनें पढ़ते ही उसे लगा जैसे किसी ने उसके दिल की गाँठ खोल दी हो।
रागिनी चली गई थी, हाँ। शायद कभी वापस न आए।
मगर उसने अंशुल को एक आईना दिखा दिया था—कि वो किस हद तक किसी से जुड़ सकता है, और साथ ही ये भी कि उसके भीतर टूटने के बाद भी खड़े रहने की ताक़त है।

धीरे-धीरे अंशुल फिर से लिखने लगा।
अब वो शब्द सिर्फ़ दर्द से नहीं निकलते थे, उनमें ठहराव था। उनमें ये एहसास था कि ज़िंदगी सिर्फ़ चाहतों की पूर्ति नहीं है, बल्कि अधूरेपन को अपनाना भी है।

और एक रोज़ उसने अपनी डायरी में लिखा—
"शायद मुझे कोई टूटकर चाहे या न चाहे... लेकिन मैं इतना ज़रूर करूँगा कि जब भी किसी को चाहूँ, वो पूरी सच्चाई और ईमानदारी से हो।"

उस शाम अंशुल को लगा कि उसने ज़िंदगी से कोई बड़ा हिसाब बराबर कर लिया है और वो ज़िन्दगी के अगले अध्याय के लिए तैयार है..... 

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