(पन्ना- 17)
आज फिर घर अजीब-सा खाली है।
पियू की हँसी खिड़की से झाँकती नहीं,
और शिवी की खिलखिलाहट
कमरे की दीवारों पर टकराकर
वापस नहीं आती।
मैं दोनों की दूरी को
अपनी साँसों में नापता हूँ।
आईना धुँधला है—
क्योंकि उस पर तुम्हारी मुस्कान
काफ़ी दिनों से नहीं उतरी।
इन खालीपन के बीच
मैं एक पुल बनाता हूँ,
जो शायद किसी नक्शे पर नहीं है।
वह बस मेरी धड़कनों में है—
धीरे-धीरे जुड़ता हुआ,
हवा की तरह फैला हुआ।
शायद यही दूरी की गवाही है—
कि प्रेम कहीं खोया नहीं,
बस और गहरा होकर
अदृश्य हो गया है।
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