बीती रात एक फिल्म देखी, "Listen... Amaya"... काफी दिनों से इस फिल्म को देखने का सोच रहा था... फारूक शेख और दीप्ति नवल के जानदार अभिनय ने गज़ब का मैजिक क्रियेट किया है... स्वरा भास्कर ने अमाया के किरदार को इतना बेहतरीन निभाया है कि उस किरदार में उसकी जगह और किसी को सोच भी नहीं सका... वो अच्छी फिल्मों के प्रोजेक्ट्स ले रही हैं जिससे उनका फिल्मों और रोल्स का चयन भी प्रभावित करता है... फिल्म का निर्देशन लाजवाब है, छोटे-छोटे दृश्यों को भी प्रभावशाली बनाया गया है.. लेकिन इन सारी बातों से अलग जिस चीज ने सबसे ज्यादा सोचने पर मजबूर किया वो थी इसकी कहानी, इस फिल्म की कहानी कई हद तक राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल की फिल्म अमृत की याद दिलाती है...
इस फिल्म को देखकर लगातार ये सोचता रहा कि अगर मैं अमाया की जगह होता तो क्या करता, क्या हमारा समाज इतना परिपक्व हो गया है कि इस तरह की परिस्थिति के अनुरूप खुद को ढाल सके... जब एक युवा अपनी मर्ज़ी से विवाह का फैसला करता है तब यही समाज और यही माता-पिता उसपर न जाने कितने दवाब डालते हैं... आज भी छोटे शहरों में प्रेम-विवाह, अंतरजातीय विवाह, या फिर लिव-इन रिलेशनशिप को स्वीकार नहीं किया गया है... फिर कैसे ये समाज किसी बुजुर्ग को वही काम करने की आजादी दे देगा... जब कभी बच्चे ऐसा कोई सम्बन्ध निबाहने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें समाज की दुहाई दी जाती है, फिर कैसे वो बच्चे अपने माता/पिता के ऐसे किसी सम्बन्ध को लेकर उसी समाज से नज़रें मिला पायेंगे...
अक्सर सांझ बहुत सुहावनी होती है, लेकिन कभी-कभी अकेलापन इसी संध्या को बोझल बना देता है.. और अगर वो जीवन संध्या हो तो ? एक इंसान अपनी ज़िन्दगी में कई सारे नुक्कड़ों से होकर गुज़रता है... कई सारे संघर्षों और ज़द्दोज़हद से लड़ता हुआ, अडिग अपने कर्म करता जाता है... लेकिन जब वो ज़िन्दगी के आखिरी नुक्कड़ की और जाने वाली सड़क पर होता है तो उसके पग भी हलके-हलके कांपते ज़रूर हैं... घर-परिवार-नौकरी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका वो इंसान इस दौड़ती-भागती दुनिया को अपने पैरों की कम्पन नहीं दिखाना चाहता... अधिकतर बच्चे भी नौकरी की भागादौड़ी में दूसरे शहर चले जाते हैं... कई बार तन से बूढा हुए बिना ही इंसान मन से बूढा हो जाता है... जब इस बार घर गया था तब बातों ही बातों में माँ-पापा का दर्द महसूस कर पाया, माँ ने कहा आजकल पैसे तो सभी के पास हैं लेकिन समय किसी के पास नहीं... ऐसे में बस उसके साथ उनका हमसफ़र ही होता है जो बिना बताये सब समझ लेता है...
अक्सर सांझ बहुत सुहावनी होती है, लेकिन कभी-कभी अकेलापन इसी संध्या को बोझल बना देता है.. और अगर वो जीवन संध्या हो तो ? एक इंसान अपनी ज़िन्दगी में कई सारे नुक्कड़ों से होकर गुज़रता है... कई सारे संघर्षों और ज़द्दोज़हद से लड़ता हुआ, अडिग अपने कर्म करता जाता है... लेकिन जब वो ज़िन्दगी के आखिरी नुक्कड़ की और जाने वाली सड़क पर होता है तो उसके पग भी हलके-हलके कांपते ज़रूर हैं... घर-परिवार-नौकरी की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुका वो इंसान इस दौड़ती-भागती दुनिया को अपने पैरों की कम्पन नहीं दिखाना चाहता... अधिकतर बच्चे भी नौकरी की भागादौड़ी में दूसरे शहर चले जाते हैं... कई बार तन से बूढा हुए बिना ही इंसान मन से बूढा हो जाता है... जब इस बार घर गया था तब बातों ही बातों में माँ-पापा का दर्द महसूस कर पाया, माँ ने कहा आजकल पैसे तो सभी के पास हैं लेकिन समय किसी के पास नहीं... ऐसे में बस उसके साथ उनका हमसफ़र ही होता है जो बिना बताये सब समझ लेता है...
लेकिन जिन्होंने कभी हमारे लडखडाते हुए से क़दमों को रास्ते नापने की समझ सिखाई, क्या हम उन्हें इतनी सी आजादी भी नहीं दे सकते कि अगर वो चाहें तो उम्र के उस आखिरी नुक्कड़ तक जाने वाली सड़क पर वो भी किसी का हाथ थाम सकें और ऐसी किसी परिस्थिति में अगर कोई बुजुर्ग ऐसा निर्णय लेते हैं तो हम भी पूरे सम्मान के साथ इसे स्वीकार सकें...
खैर, इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिख सका, लेकिन अगर आप अपनी व्यस्त ज़िन्दगी से दो घंटे निकाल कर इस फिल्म को देख सकें तो ज़रूर देखें और सोचें कहीं हम उन्हें किसी ख़ुशी से वंचित तो नहीं कर रहे हैं... फिल्म DVD और यू ट्यूब दोनों पर उपलब्ध है...
मैं ऐसे निर्णयों के पक्ष में रहा हूँ ,सदा । बस ऐसे निर्णय में 'कम्पैनियशिप' के अतिरिक्त और कोई छुपा स्वार्थ नहीं होना चाहिए अन्यथा उनसे जुड़े बाक़ी लोगों का जीवन दूभर हो जाता है ।
ReplyDeleteआपका कहना शत-प्रतिशत सही है.. छुपे स्वार्थ हमेशा जीवन दूभर ही बनाते हैं,
Deleteसबसे पहले तो एक बिग थैंक्यू शेखर , जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तो कुछ व्यस्तता थी...फिर टलता ही गया ..तुमने सजेस्ट किया और लिंक भी दिया {Thanx again:)}और कल ही यह फिल्म देखी .बहुत ही ख़ूबसूरत फिल्म है..कथानक नया है ..और जिस तरह से अमाया के मन की उलझनों को दर्शाया गया है ,काबिल-ए-तारीफ़ है. और सबकी एक्टिंग तो इतनी सहज है कि लगता है फिल्म नहीं देख रहे..हमारे सामने यह सब घट रहा है .
ReplyDeleteतुम्हे मेरी पोस्ट याद रही...लिखना सार्थक हुआ .
आपकी ३-४ पोस्ट्स इसी विषय के आस-पास घूमती पढ़ी थी... अच्छी लगी थीं, फिल्म देखने के बाद और अच्छी लग रही हैं....
Deleteउम्र के उस पड़ाव पर, जब सारे अपने हाथ छुड़ाकर चले जाते हैं या परिस्थितियाँ हमारे अपनों को दूर कर देती हैं तो ऐसे में एक स्पर्श, एक ढाढस, कुछ बातें, कुछ सुख-दुःख बाँटना, दो कदम साथ चलना बहुत शिद्दत से महसूस होता है.. ज़िंदगी फ्लैश बैक में होती है और हर पल रिवाइंड हो रही होती है - ऐसे में ज़िंदगी की साँझ में उम्मीद का एक सूरज "चैन से आँख बंद करने" का सुख तो देता ही है...
ReplyDeleteबहुत ही सेंसिटिव सब्जेक्ट है... और यह सोचते हुए कि फारुख शेख और दीप्ति हैं- थ्रिल होने लगता है!!
बहुत अच्छा लिखा है तुमने भी!!
आपके इस कमेन्ट का जवाब ही नहीं सूझ रहा, बस थैंक्स.. :)
Deleteबहुत अच्छा लिखा है, गहराई भी, संवेदन भी।
ReplyDeleteHad seen this film a month back... it was a captivating experience!
ReplyDeleteWell written article!
"अमृत" की याद हमें भी आ गयी!
Thanks for this post and congratulations to you for raising a sensitive subject aptly!
Thankz for the appreciation... :)
Deleteकई दिनों पहले हमारे मन में कुछ इसी तरह की कहानी लिखने का विचार आया था...तब लगा था कि बड़ा नया विषय रहेगा जहाँ मैंने सोचा था कि एक बहु अपनी अकेली सास के लिए साथी खोजती है...बहुत सी बातें थीं जो जस्टिफाई करती मेरी कहानी को....
ReplyDeleteखैर अब वो कोई नयी बात नहीं...कहानी शायद फिर भी लिख डालूँगी कभी :-)
क्यूंकि विषय बहुत हृदयस्पर्शी है..
तुम्हारा लिखा हमेशा की तरह दिल में उतर गया....
<3
सस्नेह
अनु
आज काफी व्यस्तताओं के बाद भी इस पोस्ट को लिखने की फुर्सत निकाली, क्यूंकि अक्सर जो टल जाता है वो टल ही जाता है... सुबह 5 बजे उठा ताकि इसका रफ ड्राफ्ट बना सकूं और सुबह जल्दी ऑफिस आकर इसे पूरा किया... आप भी अपनी कहानी लिखियेगा ज़रूर.. इंतज़ार रहेगा,...
DeleteSuper Duper Dhansoo, I have missed this movie, gonna watch it very soon :)
ReplyDeletewatch ASAP, opinion is awaited... :-)
Deleteकुछ साल पहले एक खबर बडे ही जोर शोर से दिखाई गई थी या शायद कहीं पढी थी कि किस तरह से एक बेटी जिसका विवाह तय होता है वो अपनी जिद पर पहले अपनी मां का विवाह कराती है ताकि उसके ससुराल चले जाने के बाद वो अकेलेपन के गर्त में अपनी जिंदगी न बिताए । सोचता हूं कि पश्चिमी देशों ने जीवन को जिंदगी की तरह जीना सीख लिया है , अभी इस समाज को बहुत कुछ सीखना देखना है । जल्दी ही देखते हैं ये फ़िल्म
ReplyDeleteसच में अभी भारतीय समाज को बहुत कुछ सीखना है, जो कुछ अब तक सीखा उसमे बुरी बातें ही ज्यादा हैं, अच्छी बातें छोड़ दी...
Deleteदोपहर में आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद मैंने यह
ReplyDeleteफिल्म देखी सच में बहुत ही अच्छी फिल्म है ये,
और इस विषय पर आपके विचार सार्थक है..
:-)
Jab aayi thi film tabhi dekhi thi... aur phir laga ki jaise ye film to thi hi nahi... itni natural ki jaise abhi aankhon k saamne gujri ho. Phir torrent se download kar k sahej li...
ReplyDeleteFaarookh saab.. deepti naval aur swara teenon jaise aas paas k hi kirdaar lagte hain. Ek behad samvedansheel mudde par bani behad sashakt aur umda film.
Bahut shukriya shekhar bhai.... samvedna k is taar ko dobara chhedne k liye. Aabhaar.
अरे शुक्रिया, आभार से बाहर निकालिए.. नहीं तो हम तारीफ़ के लिए भी शुक्रिया कहने लगेंगे... इतना फॉर्मल मेरे से नहीं हुआ जाता है... :)
Deleteपढ़ कर लगा कि सार्थक फिल्म की सार्थक चर्चा है.
ReplyDeleteमुझे तो उम्र के किसी भी पड़ाव पर और किसी भी समबन्ध में जब तक एक ईमानदार और परिपक्व प्रयास रहता है ,वो समबन्ध स्वीकार्य लगता है ....... फिल्म तो अभी नहीं देख पायी हूँ जल्दी ही देखती हूँ , वैसे तुमने लिखा भी बहुत संतुलित और विवेकपरक है !!
ReplyDeleteफिल्म अच्छी है, देख ही लीजियेगा.. :-) बाकी बातें, फिल्म देखने के बाद...
Deleteभाई यह एक बहुत ही अच्छी कहानी पर एक बहुत ही अच्छी फ़िल्म है ।
ReplyDeleteदीप्ति जी से जयपुर लिट् फेस्ट में मुलाक़ात हुई थी 2011 में. उनका सरल स्वाभाव मन को छू गया था । असल ज़िन्दगी में दिप्ति अकेली हैं शायद इसलिए भी किरदार इतनी बखूबी निभा लिया उन्होंने । ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा में भी अच्छी लगीं थी ।
अमृत भी एक बहुत प्यारी फिल्म है ।
हाँ, हो सकता है लेकिन जो भी हो फिल्म तो बेहतरीन बनी है...
Deleteफिल्म जब रिलीज हुई थी तभी काफी सुना था समीक्षकों ने भी अच्छा बताया था किन्तु कई बार चाह कर भी फिल्म देख नहीं पाती हूँ , रश्मि जी ने जब इस विषय पर लिखा था तो हम सभी ने अच्छी चर्चा की थी इस पर , ब्लॉग इसीलिए तो मुझे पसंद है जहा कई बार आप को उन विषयो पर भी सोचने के लिए मजबूर कर देता है जिसके बारे में आप के दिमाग में कभी नहीं आया या जिसके बारे में आप बहार चर्चा नहीं कर पाते है , पर इ चर्चा हम फेसबुक पर नहीं करते है उसे हमने बस अपने परिवार और कुछ पुराने मित्रो तक ही सिमित रखा है , सिर्फ बातचीत और फोटो सोटो देखने दिखाने के लिए :)
ReplyDeleteफिल्म अच्छी है, देख ही लीजियेगा.. और बात आपकी हम समझ गए... :)
Deleteबहुत बढियां मैंने तो नाम ही नहीं सुना था
ReplyDeleteशेखर .....मुझे पता है की आप मेरा ब्लॉग बराबर पढ़ते हैं ......मैंने भी आपको फॉलो किया है ....पर न जाने क्यों ....कभी यहाँ तक पहुंचा ही नहीं ....आज पढ़ा .......वाह ........अब मुझे समझ आया की लोग किसी ब्लॉग को क्यों पसंद करते हैं ......शैली ........आप तुरंत कनेक्ट करते हैं पाठक से ........मैं अपने प्रशंसकों से हमेशा पूछता हूँ ....क्या अच्छा लगता है तुम्हे मेरे ब्लॉग पे ....और क्यों .....पर कोई बता ही नहीं पाता....इसका जवाब मुझे आज मिल गया ......पाठक से कनेक्ट करो ....वो तार जुड़ने चाहिए ....तभी विद्युत् का फ्लो बनता है ....पढ़ के मज़ा आया
ReplyDeleteरही बात listen amaayaa की .....इसे अभी डाउनलोड पे लगा दिया है ........मैं हमेशा ऐसी उम्दा फिल्में ढूंढता हूँ .......पिछले दिनों King's speech देखी थी ......आज तक उसका सुरूर है .....बहुत दिनों से सोच रहा था उसपे एक पोस्ट लिखूं ......... आज आपकी पोस्ट पढ़ के मन बना लिया है .....लिखूंगा .......
इस बेहतरीन पोस्ट के लिए साधुवाद .......
तुम्हारी पोस्ट्स गाहे बगाहे पढ़ते रहते हैं. ये वाली पोस्ट भी बहुत दिन पहले पढ़े थे. इधर दुबारा लौटना हुआ इसपर. फिल्म कभी कहीं दिखी तो देखूंगी.
ReplyDelete---
तुम्हारे कमेन्ट का जवाब लिखने का मन किया. सोचे कहाँ लिखें. बहुत दिन बाद कोई बड़ा ब्लॉगर होने का इलज़ाम लगाया है. मन तो किया कुछ फ़ेंक कर मारें यहीं से, डाइरेक्ट जहाँ वो वहीँ लगे. स्कूल में जैसे सर लोग चौक मारा करते थे टाईप. बेसी ड्रामेबाजी सीखे हो. बैंगलोर में कोई लतियाता नहीं है न इसलिए माथा ख़राब हो जाता है बच्चा लोग का.
राइजिंग स्टार हो बाबू, सब पोस्ट पर कमेन्ट का का बौछार लगा होता है, और क्या चाहिए रे?
अच्छा लिखते हो. सीधा. सिंपल. हमको क्या पसंद आता है इसका कोई सर पैर आज तक हमको पता नहीं चला है. पढने का वक़्त भी कम मिलता है आजकल. जो थोड़ा मिलता है उसमें लिखते हैं. पिक्चर देखते हैं. थोड़ा बहुत घर भी समेटते हैं नहीं तो ब्लैक होल जैसा हो जाता है जिसमें एक चीज़ खोया तो दुबारा नहीं मिलता.
आज मुहूर्त निकाल कर कमेन्ट लिखे हैं. अच्छा बुरा लगे तो तुमरा गलती.
ऐ... रे.... हम तो पहले ही बोले थे बकर कर रहे हैं... मन नहीं लग रहा था, हमको तो पूरा बंगलौर ही ब्लैक होल जैसा लगता है.... यहाँ खोये तो फिर मिलना मुश्किल है.... सच में अब यहाँ दिल नहीं लगता.... बाकी हमको कोई शिकायत नहीं है तुमसे.... :)
Delete