कभी-कभी सच,
गले में अटका काँटा होता है।
निकालो तो लहू बहता है,
दबा दो तो साँसें छिलती हैं।
मैंने सीखा है,
कुछ सच्चाइयों को तहख़ाने में उतार देना चाहिए,
जहाँ उनकी आवाज़ें
सिर्फ़ रात के अंधेरे में गूंजें,
और दिन के उजाले में
कोई दरार से झाँक न पाए।
तुम जानती हो,
ख़ुशी हमेशा सच की साथी नहीं होती,
कभी झूठ की झिलमिल परत
ज़िन्दगी को बचा लेती है।
जैसे बुझते दीपक के आगे
हथेली फैलाकर
मैं दिखाता हूँ कि रोशनी है—
हालाँकि हथेली जल रही होती है।
मैं मुस्कुराता हूँ,
कि तुम यह न समझ सको
मेरे भीतर की हरियाली
दरअसल राख पर उगी हुई घास है।
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सच या झूठ…
दोनों ही अपने अपने वक़्त पर ज़रूरी लगते हैं।
सच कभी खंजर बनकर दिल चीर देता है,
तो झूठ कभी मरहम बनकर
उस ज़ख़्म को ढक देता है।
लोग कहते हैं—
सच से रिश्ते मज़बूत होते हैं,
मगर मैंने देखा है,
कई बार सच ही रिश्तों को चुपचाप तोड़ देता है।
झूठ बुरा है, ये सब मानते हैं,
पर वही झूठ कभी
किसी की आँखों की चमक बचा लेता है,
किसी की हँसी लौटा देता है।
तो आखिर सही कौन है?
सच?
या झूठ?
शायद असली जवाब यही है कि
ज़िंदगी इन दोनों की मिली-जुली कहानी है…
जहाँ सच और झूठ
दोनों ही अपने अपने किरदार निभाते रहते हैं।
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