Saturday, August 23, 2025

साँसों के भीतर छुपे मौसम...

मेरे फेफड़ों में

अब भी
बरसात ठहरी है —
धूप की गंध लिए
वो पहली फुहारें,
जो तुम्हारी हँसी से
भीग गई थीं।

हर साँस
एक अलग मौसम बन कर
गुज़रती है —
कभी पतझड़ की तरह
सारे शब्द झड़ जाते हैं,
कभी वसंत बनकर
तेरा नाम
अलसी की पंखुड़ी-सा
खिल उठता है।

दाएँ नथुने से
ठंडी हवाओं में
तेरा खोया हुआ लिफ़ाफ़ा
घुस आता है,
और बाएँ से
गुज़र जाती है
तेरी याद की वह दोपहर
जिसमें नींद भी
उलझी पड़ी थी।

मैं जब भी गहरी साँस लेता हूँ,
मेरे भीतर
कोई पुराना मौसम
दस्तक देता है —
कभी तुम्हारा बाँका जून
कभी उदास जनवरी,
कभी वो मई की दोपहर
जहाँ तुमने
किसी पसीने से
मेरा नाम लिखा था।

साँसों के भीतर
एक पूरा साल पल रहा है,
और बाहर का मौसम
बस एक बहाना है
भीतर के ताप को
छुपाने का।

3 comments:

  1. आपने जिस तरह यादों को मौसमों में बदल दिया है, वो कमाल की बात है। मैं हर लाइन में एक अलग-सी नमी, एक पुरानी गंध और एक ठहराव महसूस करता हूँ। आप जैसे ही किसी हँसी, किसी दोपहर या किसी अधूरे लम्हे को साँसों में समेट लेते हो, वो सीधे दिल में उतर जाता है।

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