Saturday, October 6, 2018

ये माँ भी मेरी न जाने कितने कमाल करती है...

ये माँ भी मेरी न जाने कितने कमाल करती है,
में ठीक तो हूँ न, हर रोज़ यही सवाल करती है

शाम हो गयी है देखो, अंधेरा भी हो गया है
आँचल में समेटकर वो मुझको, हिम्मत बहाल करती है

माँ भूखी है. व्रत रखा उसने मेरी लम्बी उम्र के लिए,
माँ की भूख से मिली ये उम्र मुझसे ही सवाल करती है

मैंने सजाया है दस्तरखान जाने कितने पकवानों से
पर जब तक माँ न खिला दे, ये भूख बेहाल करती है...

ये माँ भी मेरी न जाने कितने कमाल करती है,
में ठीक तो हूँ न, हर रोज़ यही सवाल करती है...


Friday, September 7, 2018

तुम प्यार करोगी न मुझसे

तुम प्यार करोगी न मुझसे,

तब, जब मैं थक के उदास बैठ जाऊँगा
तब, जब दुनिया मुझपे हंस दिया करेगी
तब, जब अँधेरा होगा हर तरफ
तब, जब हर शाम धुंधलके में भटकूँगा मैं उदास

तब एक उम्मीद का दिया जगाये
तुम प्यार करोगी न मुझसे...

तब, जब मुझे दूर तक तन्हाई का रेगिस्तान दिखाई दे 
तब, जब मेरे कदम लड़खड़ाएं इस रेत की जलन से 
तब, जब मैं मृगतृष्णा के भंवर में फंसा हूँ 
तब, जब इश्क़ की प्यास से गला सूख रहा हो मेरा 

तब अपनी मुस्कान ओस की बूंदों में भिगोकर 
तुम प्यार करोगी न मुझसे...

तब, जब ये समाज स्वीकार नहीं करे इस रिश्ते को
तब, जब प्रेम एक गुनाह मान लिया जाए
तब, जब सजा मिले हमें एक दूसरे के साथ की
तब, जब मुँह फेर लेने का दिल करे इस दुनिया से

तब इस साँस से लेकर अंतिम साँस तक
तुम प्यार करोगी न मुझसे... 

Sunday, September 2, 2018

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

नफरत इतनी कि
सड़क पर अपनी गाड़ी की
हलकी सी खरोंच पर भी
हो जाएँ मरने-मारने पर अमादा,

और मोहब्बत इतनी भी नहीं कि
अपने माँ-बाप को लगा सकें
अपने सीने से
और कह सकें शुक्रिया...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

मोहब्बत सिगरेट की फ़िल्टर सी है,
नफरत का सारा धुंआ खुद से होकर गुजारती है
सारी नफरत ले चुकने के बाद
हम उस मोहब्बत को ही फेक देते हैं
और कुचल देते हैं
अपनी जूतों की हील से
और नफरत !!
वो तो समा चुकी है हमारे सीने में टार बनके...

बहुत धीमी बहती है मोहब्बत लोगों की रगों में,
नफरत से कहीं धीमी...

Thursday, March 22, 2018

बस एक बेहतर कल की तलाश में...

मैं घिसता हूँ खुद को हर रोज,
खुद को खुद से आगे निकालना चाहता हूँ,
ये रगड़ एक आग पैदा करती है
मैं अकेला बैठ कर जल जाता हूँ हर शाम उसमें...
थक कर, घायल होकर
सवाल फिर खुद से ही करता हूँ
कि क्या ज़रुरत है इस संघर्ष की
दिल भी कन्धा उचका कर दे देता है जवाब,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मैं निराश होता हूँ क्यूंकि
मैं वो नहीं बन पाया
जो शायद बनना ज़रूरी था मुझे,
फिर भी मैं हर रोज लड़ता हूँ
निराशा को दरकिनार करता हूँ,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

मेरे पास हर उस कल के सपने हैं,
जो कल नहीं आया अब तक
पता नहीं वो कल कभी आएगा भी या नहीं,
मेरे तले ज़मीं भी रहेगी या नहीं तब तक...

मेरा आज मुझे धिक्कारता है
क्यूंकि मेरा आज कभी आने वाला कल था
जिसकी फ़िक्र मैंने कभी नहीं की
और अब मैं अपना आज गंवा बैठा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

ज़िन्दगी से कई सवाल हैं मेरे,
मैं नोटबुक में लिखता रहता हूँ
जो कभी उस दुनिया में कभी सामना हुआ तो
पूछ पाऊं उन सवालों को
फिलहाल तो आज बस मैं सवाल ही लिखता जा रहा हूँ
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

लगता है कि शायद कभी
किसी मोड़ पर गर
पर्दा गिराना हो इस ज़िन्दगी के नाटक से
तो क्या वो भी कर लूंगा मैं,
"शायद बस एक बेहतर कल की तलाश में..."

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